Book Title: Mulsutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 363
________________ *३५८ मूलसूत्र : एक परिशीलन पहले कतिपय मनीषियों के मतानुसार कहा जा चुका है कि देववाचक और देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण एक ही हैं। वे अनुयोगाचार्य दूष्यगणी के शिष्य हैं। देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के गुणों के विषय में पहले कह चुके हैं। कल्पसूत्र स्थविरावली में भी उनकी विशेषताएँ बताई गई हैं। वे ही अन्तिम वल्लभी वाचना के सूत्रधार थे। अन्य अनुयोगधर कालिकश्रुत ज्ञाता आचार्यों को प्रणाम स्थविरावली का उपसंहार करते हुए आचार्य देववाचकगणी अन्तिम (५०वीं) गाथा में कहते हैं-इन (पूर्वोक्त) युगप्रधान आचार्यों के अतिरिक्त अन्य जो भी कालिकश्रुतों के ज्ञाता, यानि अंगश्रुत और कालिकश्रुतों के विशिष्ट ज्ञाता एवं अनुयोगधर धीर आचार्य भगवन्त हुए हैं, उन सभी को नतमस्तक होकर प्रणाम करके मैं (देववाचक) ज्ञान की प्ररूपणा करूँगा।२२४ इस प्रकार अर्हत् वन्दना एवं स्तुति से लेकर युगप्रधान स्थविर आचार्य भगवंतों की स्तति करने का आशय विशिष्ट भावमंगलाचरण तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, संयम के महास्रोत गुणविधियों के प्रति विनय-भक्ति करना है, ताकि अपने में ज्ञानादि का अहंकार, प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, प्रतिष्ठा, लालसा आदि दुर्गुणों से सर्वथा निर्लिप्त रहा जा सके। परिषद् के तीन प्रकार ___ इसके पश्चात् नन्दीसूत्र के वाचन-श्रवण के अधिकारी-अनधिकारी श्रोताओं की तीन प्रकार की सभाओं (अज्ञा, अनज्ञा और दुर्विदग्धा) का वर्णन किया गया है। प्रत्येक परिषद् (सभा) के विविध स्वभावों का १४ दृष्टान्तों द्वारा विश्लेषण किया गया है।२२५ पंचविध ज्ञान प्रमाण की दृष्टि से दो भागों में समाविष्ट तदनन्तर नन्दीसूत्र के मुख्य विषय-पंचविध ज्ञान (आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान) का विविध भेद-प्रभेदों द्वारा वर्णन किया गया है। इसी पंचविध ज्ञान को संक्षेप में दो प्रकार से प्ररूपित किया गया है-प्रत्यक्ष और परोक्ष। जैन सिद्धान्त की दृष्टि से प्रत्यक्ष के विषय में अन्य दर्शनों के साथ मतभेद है। जैन सिद्धान्त के अनुसार आदि के दो ज्ञान परोक्ष हैं और शेष तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं। परन्तु अन्य दर्शन प्रमाण के सन्दर्भ में इन्द्रियों के साथ वस्तु के सन्निकर्ष से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष और स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, अनुमान, उपमान और आगम (शब्द) को परोक्ष प्रमाण मानते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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