Book Title: Mulsutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 365
________________ * ३६० * मूलसूत्र : एक परिशीलन (अपने आपको तथा पर-पदार्थों) को जानना, निश्चय करना ज्ञान है। ज्ञान के इन और ऐसे व्युत्पत्तिलभ्य अर्थों को देखते हुए यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि ये अर्थ जैसे ज्ञान के हैं, वैसे अज्ञान (मिथ्या ज्ञान या कुज्ञान) में भी घटित होते हैं। अतः शंका होती है कि नन्दीसूत्र में वर्णित पंचविध ज्ञान में कौन-सा ज्ञान (सम्यक् ज्ञान, अज्ञान, मिथ्या ज्ञान) शास्त्रकार को अभीष्ट है ?२२७ अध्यात्मशास्त्र की दृष्टि से सम्यक् ज्ञान और मिथ्या ज्ञान का अन्तर इसका समाधान यह है कि यों तो बेसमझ, अबोध, अज्ञ या पागल व्यक्ति भी या मिथ्या दृष्टि मानव भी या पंचेन्द्रिय तिर्यंच, देव, दानव, नारक भी वस्तु की जानकारी सम्यक् दृष्टि की तरह रखते हैं, प्राप्त कर लेते हैं, उन सबके ज्ञान को अथवा चार्वाक, नास्तिक, एकान्तमतवादी या मिथ्यात्वी या नरसंहारार्थ या भौतिक ज्ञान को संसार के भोगविलास रूप सुखार्थ विविध वैज्ञानिकों के बौद्धिक ज्ञान को सम्यक् ज्ञान नहीं कहा जा सकता, क्योंकि संसाराभिमुखी भवाभिनन्दी (मिथ्यात्वी) आत्मा चाहे जितना अधिक ज्ञान प्राप्त कर ले, सारे विश्व के भूगोल, खगोल, इतिहास, अर्थशास्त्र,राजनीतिशास्त्र, कामशास्त्र आदि की जानकारी हो, उन-उन विषयों पर वह हजारों पृष्ठ लिख सकता हो, कई घण्टों तक उन-उन भौतिक आदि विषयों पर धाराप्रवाह बोल सकता हो, यदि उसे सम्यक् दृष्टि प्राप्त नहीं है, उसकी दृष्टि मोक्षाभिमुख या आत्मलक्षी देव, गुरु, धर्मशास्त्रलक्षी नहीं, स्वात्मा तथा विश्व की आत्माओं के हित की दृष्टि नहीं है, आत्मा में प्रचुर मात्रा में समभाव, आस्था सहित कषायों का उपशमन, शान्ति, धैर्य, वैराग्य एवं मोक्ष-प्राप्ति की आकांक्षा न हो तो उसका सारा लौकिक ज्ञान और शास्त्रीय ज्ञान भी आध्यात्मिक दृष्टि से अज्ञान ही है। अज्ञान का अर्थ ज्ञान का अभाव नहीं, मिथ्या ज्ञान या कुज्ञान है। प्रमाणशास्त्र या न्यायशास्त्र की दृष्टि से प्रत्येक ज्ञान, चाहे वह सम्यक हो या मिथ्या, स्व-पर-प्रकाशक होता ही है। प्रमाणशास्त्र या न्यायशास्त्र की दृष्टि में जिस ज्ञान का विषय यथार्थ हो, उसे व्यवहार में प्रमाण और सम्यक ज्ञान मान लिया जाता है, तथा जिस ज्ञान का विषय यथार्थ न हो, उसे व्यवहार में प्रमाणाभास या असम्यक ज्ञान (मिथ्या ज्ञान) माना जाता है। परन्तु अध्यात्मशास्त्र अथवा अध्यात्मलक्षी धर्मशास्त्र में न्यायशास्त्र-सम्मत सम्यक् ज्ञान असम्यक् ज्ञान का यह पृथक्करण व्यवहार दृष्टि से कथंचित् मान्य होने पर भी परमार्थ दृष्टि से यह पृथक्करण गौण है। यह भी सम्भव है कि मोक्षार्थी, मोक्षाभिमुखी, आत्मार्थी सम्यक दृष्टि के क्षयोपशम की कमी से, इन्द्रियविकलता से अथवा बुद्धि-मन्दता के कारण किसी विषय में उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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