Book Title: Mulsutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 364
________________ नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन ३५९ T अनेकान्तवादी समन्वयकारक जैनदर्शन ने मति- - श्रुतज्ञान को परोक्ष मानते हुए भी सापेक्ष दृष्टि से इन्द्रिय- प्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय-प्रत्यक्ष, ऐसे दो भेद किये हैं । दूसरे शब्दों में- परवर्ती जैन- दार्शनिकों ने इन्हें सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा है । तथैव स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, अनुमान, उपमान और आगम (शब्द) को अन्य दर्शनों द्वारा परोक्ष मानते हुए भी जैनदर्शन ने इन सबको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष (सैद्धान्तिक दृष्टि से परोक्ष) की कोटि में माना है परन्तु प्रमाण की दृष्टि से जब विविध दर्शनों की मान्यता और वैशेषिक दर्शन का विचार जाना गया तो निष्कर्ष यह निकला कि न्यायदर्शन और वैशेषिकदर्शन प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द और उपमान ये चार प्रमाण मानते हैं सांख्यदर्शन प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द ये तीन प्रमाण, प्रभाकर अर्थापत्ति सहित पाँच प्रमाण, भाट्ट और वेदान्तदर्शन ये दोनों अभाव सहित छह प्रमाण मानते हैं । बौद्ध प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो प्रमाण मानते हैं, जबकि जैनदर्शन प्रत्यक्ष और परोक्ष, ये प्रमाण मानता है। जैनदर्शन सम्मत पारमार्थिक प्रत्यक्ष का लक्षण यह है कि जिस ज्ञान में इन्द्रिय, मन, बुद्धि, आलोक या किसी भी बाह्य निमित्त की आवश्यकता नहीं रहती, सीधे आत्मा की अपनी-अपनी योग्यता एवं क्षमता (क्षय, क्षयोपशम, उपशम) के बल से जो ज्ञान प्रगट हो, उसे प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं। इसके तीन भेद हैं - अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान। इसके विपरीत जो ज्ञान इन्द्रियों और मन की सहायता से होता है, ऐसा अस्पष्ट ज्ञान परोक्ष ज्ञान कहलाता है। स्पष्ट ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं। विकलादेश प्रत्यक्ष में आत्मा पर आये हुए आवरण का पूर्णतया नाश नहीं होता, जितने-जितने क्षयोपशम की तरतमता होती है, प्रत्यक्ष उतना उतना स्पष्ट, स्पष्टतर कहलाता है । किन्तु एकलादेश प्रत्यक्ष में आवरण का सर्वथा क्षय हो जाता है। इस अपेक्षा से विकलादेश प्रत्यक्ष में अवधि और मनःपर्यायज्ञान को तथा सकलादेश प्रत्यक्ष में केवलज्ञान को परिगणित किया गया है। २२६ ज्ञान के व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ सम्यक् और मिथ्या दोनों प्रकार के ज्ञानों में घटित होते हैं ज्ञान का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है - " ज्ञायते परिच्छिद्यते वस्तु अनेनेति ज्ञानम् । ” - जिसके द्वारा वस्तु का बोध या विवेक होता है, वह ज्ञान है । अथवा " तदावरण क्षयोपशमयुक्तो जानाति स्वविषयं परिच्छिनत्ति इति ज्ञानम् ।" - उस ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय, क्षयोपशम से युक्त होकर जो अपने विषय या वस्तुस्वरूप को जानता है, वह भी ज्ञान है । इस अर्थ के अनुसार स्व और पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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