Book Title: Mulsutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 357
________________ ३५२ मूलसूत्र : एक परिशीलन रूप 'करण' के अप्रतिम विद्वान् थे तथा इनके साधक और आराधक भी थे। इसी प्रकार सप्तभंगी, प्रमाणभंगी, नयभंगी, गांगेय अनगार के भंगसमूह तथा अन्य जितने भी प्रकार के भंग (स्याद्वाद शैली के विकल्प) हैं, उन सबमें वाचक नागहस्ती की गति थी । कर्म - प्रकृतियों के भी वे विशेषज्ञ थे। अपने समुज्ज्वल चारित्र और विद्वत्ता से आर्य नागहस्ती वाचक और आचार्य बने । २१० 1 इसके पश्चात् २३वें पट्टधर आचार्य रेवतीनक्षत्र हैं, जो आचार्य नागहस्ती के शिष्य थे । आचार्य रेवतीनक्षत्र जाति सम्पन्न होने पर भी इनके शरीर की दीप्ति अंजनधातु के सदृश थी। अंजन आँखों में ठण्डक पैदा करता है तथा चक्षुरोग भी मिटाता है, तथैव इनके दर्शनों से भव्य जीवों के नेत्रों को शीतलता प्राप्त होती है। इसी प्रकार इनके देह की कान्ति परिपक्व द्राक्षाफल तथा नीलोत्पल कमल अथवा नीलमणि (कुवलय) विशेष के वर्ण के सदृश कमनीय थी । सम्भव है, इनका जन्म रेवतीनक्षत्र में हुआ हो, इस कारण इनका नाम रेवतीनक्षत्र रखा गया हो। मुनि कल्याणविजय जी ने इन्हें रेवतीमित्र बताया है। आचार्य देववाचक जी ने इनको भी वाचक वंश का मानकर वाचक वंश की वृद्धि की कामना की है। २११ तदनन्तर २४वें पट्टधर सिंहाचार्य हैं, जो आर्य रेवतीनक्षत्र के शिष्य थे। ये ब्रह्मद्वीपक शाखा से उपलक्षित थे। ये उस समय में प्रसिद्ध नगर 'अचलपुर' से दीक्षित हुए थे। दीक्षित होने के बाद इन्होंने कालिक शास्त्रों (श्रुतों) का गहन अध्ययन किया और इसीलिए कालिकश्रुतों की व्याख्या करने में निष्णात थे । उस समय के अन्य वाचकों (आचार्यो = वाचनाचार्यों) से ये बढ़कर थे, उत्तम वाचक थे। आचार्य सिंह बुद्धिमान और धैर्यवान थे, इस कारण श्रीसंघ में सुशोभित थे। इन्हीं का दूसरा नाम आर्य ब्रह्मद्वीपकसिंह (नन्दीसूत्र के अनुसार) था | जैनकालगणना के अनुसार इन्हें ब्रह्मद्वीपिका शाखा के स्थविर सिंहरथ' भी कहा गया है। कई विज्ञ इन्हें ब्रह्मदीपकसिंह भी लिखते हैं । २१ आचार्य स्कन्दिल, आचार्य हिमवन्त एवं आचार्य नागार्जुन पच्चीसवें से सत्ताईसवें पट्टधर : वीर निर्वाण संवत् और जैनकालगणना के अनुसार आचार्य स्कन्दिल का जन्म मथुरा के ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम मेघरथ और माता का नाम रूपसेना था । मेघरथ और रूपसेना दोनों धर्मोपासना करने वाले, For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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