Book Title: Mulsutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 333
________________ * ३२८ मूलसूत्र : एक परिशीलन प्राचीन गोत्रीय आचार्य भद्रबाहु : सप्तम पट्टधर विशिष्ट श्रुतधर (श्रुतकेवली) परम्परा में आचार्य भद्रबाहु पंचम श्रुतधर थे। आप जैन संस्कृति के ज्योतिर्धर आचार्य थे । जैन साहित्य - सर्जना के आप आदि पुरुष थे। आगमों के व्याख्याकार, इतिहासकार एवं विविध साहित्य सर्जक के रूप में आपका स्थान प्रथम है। आप अन्तिम चतुर्दशपूर्वधारी आचार्य थे । आपके पश्चात् कोई भी श्रमण अर्थशः चतुर्दशपूर्वधारक नहीं हुआ । दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहासूत्र, आवश्यकसूत्र आदि १० सूत्रों पर आपके द्वारा रचित महत्त्वपूर्ण नियुक्तियाँ हैं । कल्पसूत्र आपके द्वारा देव, गुरु, धर्म एवं आचार-संहिता पर श्रद्धा एवं चर्या टिकाने के लिए महनीय कृति है । कतिपय विद्वान् उक्त निर्युक्तियाँ द्वितीय भद्रबाहु द्वारा रचित मानते हैं । उपसर्गहर आपकी यशस्वी रचना है। आचार्य भद्रबाहु का जन्म वीर निर्वाण सं. ९४ (विक्रम पूर्व ३७६) में प्रतिष्ठानपुर में हुआ । प्राचीन गोत्र से प्रतीत होता है, आप ब्राह्मण वंश की विभूति थे । उन्होंने ४५ वर्ष की वय में आचार्य यशोभद्र से दीक्षा ग्रहण की। ६२ वर्ष की आयु में वीर निर्वाण १५६ ( विक्रम पूर्व ३१४ ) में आचार्य सम्भूतविजय के स्वर्गवास के पश्चात् आप आचार्यपद पर आसीन हुए । १४ वर्ष तक युगप्रधान पद पर जिनशासन का सफल नेतृत्व और अनुदान देकर वीर निर्वाण सं. १७० (विक्रम पूर्व ३००) में स्वर्गवासी हुए । १५१ उन्हीं के साथ अर्थवाचना की दृष्टि से श्रुतकेवली का विच्छेद हो गया। विशेष ज्ञातव्य (१) श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराएँ भद्रबाहु को श्रुतधर आचार्य के रूप में आदर प्रदान करती हैं। (२) दिगम्बर परम्परा में भद्रबाहु गोवर्धन नामक आचार्य के शिष्य थे । श्वेताम्बर परम्परा आचार्य भद्रबाहु को आचार्य यशोभद्र का शिष्य एवं आचार्य सम्भूतविजय का गुरुभ्राता स्वीकार करती है । (३) परिशिष्ट पर्व के अनुसार आचार्य यशोभद्र ने सम्भूतविजय और भद्रबाहु दोनों को संघ के आचार्यपद पर एक साथ नियुक्त किया था । १५२ आयु में ज्येष्ठ होने के कारण यह दायित्व पहले सम्भूतविजय ने सँभाला, तत्पश्चात् भद्रबाहु संघ के अग्रगण्य बने । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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