Book Title: Mulsutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

View full book text
Previous | Next

Page 344
________________ नन्दीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन *३३९ पश्चिमाभिमुख कर दिया। शिष्य भिक्षा लेकर लौटे तो द्वार को परिवर्तित देखकर विस्मित हुए। आचार्य से सौधर्मेन्द्र के आने की घटना सुनी। प्रज्ञापनासूत्र के प्रारम्भ में आर्य श्याम की स्तुतिपरक दो गाथाओं में उन्हें वाचक वंश का तेईसवाँ पुरुष बताया है। किन्तु पट्टक्रमानुसार आचार्य श्याम तेरहवें पट्टधर आचार्य होते हैं। 'विचारश्रेणी' तथा टीकाकार ने 'वाचकाः पूर्वविदः' अर्थात् वाचक का अर्थ पूर्वविद् करके गणधरों को भी वाचक मानकर गणधरों को सम्मिलित करके श्यामाचार्य को तेईसवाँ वाचक बताया है।१८० चूँकि गणधरों का मुख्य कार्य आगमों की वाचना देना था, इस दृष्टि से गणधरों को वाचक कहना मेरुतुंग आचार्य का कथन युक्तियुक्त है। निगोद-व्याख्याता श्यामाचार्य का शासनकाल ४१ वर्ष तक चलता रहा। जैनशासन की प्रबल प्रभावना कर वीर निर्वाण ३७६ (विक्रम पूर्व ९४) में ९६ वर्ष की उम्र में वे स्वर्गवासी हुए। द्वितीय कालकाचार्य द्वितीय कालकाचार्य भी इन्हीं श्यामार्य (कालकाचार्य) के समकालीन हुए हैं। वे धारानगरी के वैरसिंह राजा के पुत्र थे। इनकी माता का नाम सुरसुन्दरी था। इनकी लघु बहन का नाम सरस्वती था। गुणाकर मुनि के पावन प्रवचन को सुनकर कालककुमार और सरस्वती ने प्रव्रज्या ग्रहण की। अजोड़ विद्वत्ता और प्रतिभा के कारण गुरु ने उन्हें आचार्यपद प्रदान किया।१८१ उज्जयिनी को राजा गर्दभिल्ल साध्वी सरस्वती के अद्भुत सौन्दर्य को देखकर मुग्ध हो गया और राजपुरुषों द्वारा साध्वी सरस्वती का अपहरण कर लिया। आचार्य कालक, अमात्यगण, श्रावकसंघ तथा प्रजाजनों के समझाने पर भी वह साध्वी को अन्तःपुर से मुक्त करने को तैयार न हुआ तो आचार्य कालक ने सिन्धुतटवासी शक राजा को प्रभावित कर उसे सैन्य सहित लाकर गर्दभिल्ल पर आक्रमण किया। उसे जीवित पकड़कर आचार्य कालक के समक्ष प्रस्तुत किया और राज्यपद से च्युत करके साध्वी सरस्वती को भी मुक्त कराया। साध्वी सरस्वती और स्वयं ने प्रायश्चित्त लेकर पुनः दीक्षा ग्रहण की। अतीव प्रभावशाली व्यक्तित्त्व होने से संघ का नेतृत्व आचार्य कालक को पुनः सँभालना पड़ा। अन्य कई घटनाएँ इनसे सम्बन्धित हैं, पर यहाँ आवश्यक न होने से नहीं दी जा रही हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390