Book Title: Mulsutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 349
________________ * ३४४ मूलसूत्र : एक परिशीलन आचार्य सिंहगिरि ने झोली अपने हाथ में ली तो बहुत ही भारी लगी । उन्होंने कहा - "यह वज्रसम क्या उठा लाये हो ?" खोलकर देखा तो सौम्य वदन, तेजस्वी भाल और चमकते हुए दिव्य नेत्र देखकर आचार्यश्री को लगा"यह बालक धर्म की अपूर्व प्रभावना करेगा।" आचार्यश्री के मुख से निकले हुए 'वज्र' शब्द के कारण शिशु का नाम 'वज्र स्वामी' रख दिया। आचार्यश्री साध्वियों के उपाश्रय की शय्यातर महिला को वज्र के लालन-पालन का भार सौंप दिया। संघ की धरोहर समझकर वह महिला श्राविका माँ की तरह उसका लालन-पालन करने लगी । बालक वज्र का अधिकांश समय पालिका माता के साथ श्रमणियों के पास ही व्यतीत होता था, इसलिए उनके मुख से स्वाध्याय सुनते-सुनते उसे ग्यारह अंगों का ज्ञान कण्ठस्थ हो गया । १९० यदा-कदा सुनन्दा उपाश्रय में साध्वियों के दर्शनार्थ आती तो अपने प्रिय पुत्र को मुस्कराते देख उसकी ममता जाग उठती। उसने अपने पुत्र को ले जाने के लिए निवेदन किया तो साध्वियाँ तथा पालिका श्राविका ने कहा- “तुम इसे गुरुदेव को दे चुकी हो । गुरुदेव के आदेश के बिना हम तुम्हें इसे नहीं दे सकतीं।” पुनः आचार्य सिंहगिरि जब तुम्बवन में पधारे तो सुनन्दा ने मुनि धनगिरि से पुत्र की माँग की । धनगिरि मुनि ने कहा - "तुमने आर्य समित और अपनी सखियों की साक्षी से पुत्रदान दिया, अब उस पर तुम्हारा नहीं गुरु का अधिकार है।" सुनन्दा ने राजदरबार में न्याय की माँग की। राजा ने मुनि - संघ को आमंत्रित किया। दोनों ही पक्षों की बात सुनकर घोषणा की - "यह बालक अपनी इच्छा से जिसके पास जाना चाहे, उसी का है।" राजा ने पहला अवसर माँ को दिया। उसने खिलौने, मिठाई आदि आकर्षण की वस्तुएँ बालक को दिखाईं, पर बालक कथमपि सुनन्दा की ओर आकर्षित न हुआ। फिर धनगिरि मुनि ने बालक के सामने रजोहरण रखकर कहा - " वत्स ! तू तत्त्वज्ञ है । कर्मरज को हरण करने के लिए यह रजोहरण तेरे सामने है।" बालक ने प्रसन्न मन से उछलकर रजोहरण हाथ में ले लिया। राजा ने न्याय दिया- 'बालक मुनि - संघ का है ।" इस न्याय के बाद सुनन्दा ने सोचा- 'मेरे पति और सहोदर भाई श्रमण हैं और पुत्र भी श्रमण बनने के लिए ललक रहा है। अतः अब मुझे भी गृहस्थ जीवन में रहकर क्या करना है ? उसने भी आचार्य सिंहगिरि के पास ही दीक्षा ग्रहण कर ली और साध्वी संघ में मिल गई । १९१ वीर निर्वाण ५०४ (विक्रम सं. ३४) में बालक वज्र ने ८ वर्ष की वय में दीक्षा ग्रहण की। बालक वज्र मुनि साध्वाचार-संहिता के प्रति पूर्ण निष्ठावान् थे । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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