Book Title: Mulsutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 345
________________ * ३४० मूलसूत्र : एक परिशीलन कौशिक गोत्रीय आर्य षाण्डिल्य ( शाण्डिल्य ) : चौदहवें पट्टधर माथुरी युगप्रधान पट्टावली के अनुसार आचार्य श्याम के पश्चात् आर्य षाण्डिल्य हुए हैं । हैं । ये काश्यप गोत्रीय थे । ये जीत व्यवहार के प्रतिपालन में अत्यन्त जागरूक थे । १८२ साण्डिल्यगच्छ का प्रारम्भ इन्हीं से हुआ था और वह गच्छ आगे चलकर चन्द्रगच्छ में सम्मिलित हो गया। आर्य षाण्डिल्य का जन्म वीर निर्वाण सं. ३०६ में हुआ और २२ वर्ष की उम्र में उन्होंने श्रमण-दीक्षा ग्रहण की। ४८ वर्ष तक सामान्य श्रमण- पर्याय में रहे । वीर निर्वाण सं. ३७६ में आपको वाचनाचार्य और युगप्रधान आचार्य, ये दोनों पद प्रदान किये गए। आपने ३८ वर्ष तक युगप्रधान आचार्य पद पर रहकर जिनशासन की प्रबल प्रभावना की । आर्य समुद्र एवं आर्य मंगू : पन्द्रहवें - सोलहवें पट्टधर आचार्य हिमवन्त स्थविरावली और नन्दी स्थविरावली के अनुसार आचार्य षाण्डिल्य के उत्तराधिकारी आचार्य समुद्र थे । आचार्य देववाचक जी ने आपके लिए जिन विशेषणों का प्रयोग किया है, उससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि आपको द्वीप, समुद्र आदि का विशिष्ट ज्ञान था। आपकी कीर्ति आसमुद्रान्त तक व्यापक थी तथा प्रतिकूल परिस्थितियों में भी आप समुद्र के समान अक्षुब्ध एवं गम्भीर थे । १८३ वीर निर्वाण सं. ४१४ में आप वाचनाचार्य पद पर आसीन हुए । ४० वर्ष तक आचार्यपद पर रहकर आप जैनधर्म की प्रबल प्रभावना करते रहे । वीर निर्वाण सं. ४५४ में आपका स्वर्गवास हुआ। शीलांकाचार्य ने आचार्य समुद्र के जीवन का एक प्रसंग दिया है - जीवन सान्ध्यबेला में आचार्य श्री का जंघा - बल क्षीण हो गया था, जिससे वे विहार न कर सके। एक स्थान पर ही अवस्थित रहे और अपनी शेष आयु वहीं पूर्ण की । १८४ आर्य समुद्र के जीवन का दूसरा प्रसंग 'निशीथचूर्णि' में मिलता है - वे आहार के विषय में बहुत अनासक्त थे । भिक्षा में जो भी आहार प्राप्त होता, उसे स्वाद की अपेक्षा किये बिना, सभी पदार्थों को एक साथ मिलाकर प्रशान्त भाव से उसका उपभोग कर लेते थे। उनके अन्तर्मानस में ये विचार - लहरियाँ सदा तरंगित होती रहतीं कि कहीं मैं रसों में आसक्त होकर नवीन कर्म न बाँध लूँ। इसलिए वे सदा अनासक्त रहते थे । १८५ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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