Book Title: Mulsutra Ek Parishilan
Author(s): Devendramuni
Publisher: Tarak Guru Jain Granthalay

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Page 335
________________ * ३३० मूलसूत्र : एक परिशीलन शकडाल एवं माता का नाम लक्ष्मी था। शकडाल के ७ पुत्रियों एवं २ पुत्रों का विशाल परिवार था। शकडाल की नियुक्ति नन्द-साम्राज्य में उच्चतम अमात्यपद पर थी। उनकी मंत्रणा से ही सारे राज्य का संचालन होता था। वे अपने समय के सर्वोच्च कोटि के राजनीतिज्ञ, शिक्षा-विशारद और कुशल प्रशासक थे। उनके मंत्रित्वकाल में राज्यकोष में अपूर्द सीमावृद्धि हुई थी। लोकश्रुति के अनुसार नन्द-साम्राज्य में नौ स्वर्णशैल के अस्तित्त्व थे। तथैव मगध देश के अन्तर्गत काशी, कौशल, अवन्ती, वत्स और अंग-जैसे बड़े-बड़े राज्य थे। ऐसे विख्यात महामात्य के यहाँ स्थूलभद्र का जन्म हुआ। उनके छोटे भ्राता का नाम श्रीयक था एवं यक्षा, यक्षदिन्ना आदि ७ बहनें थीं। सभी को महामात्य ने उच्च कोटि का सुसंस्कारयुक्त शिक्षण दिलवाया। उन सातों पुत्रियों की मेधा इतनी प्रखर थी कि अश्रुतपूर्व श्लोकों को सुनकर तत्काल स्मृति में सुरक्षित रखकर ज्यों की त्यों दुहरा देती थीं।१५५ स्थूलभद्र भी अत्यन्त मेधावी था, किन्तु था कामभोग से अत्यन्त उदासीन। उसकी ऐसी वृत्ति से चिन्तित हुए महामात्य ने उसे कामकला के प्रशिक्षण हेतु उर्वश.. के समान रूप-सम्पन्न गणिका 'कोशा' के पास भेजा। षोडशवर्षीय नवयुवक स्थूलभद्र कोशा के यहाँ पहुँचा कि फिर लौटकर घर आने का नाम नहीं लिया। बारह वर्ष का दीर्घकाल व्यतीत हो गया। जब मगध के विद्वान कवीश्वर वररुचि ने अपने अपमान से क्षुब्ध होकर महामात्य शकडाल पर 'राजद्रोह' का आरोप लगाया और राजा भी जब उन्हें सन्देह की दृष्टि से देखने लगे, तब अपने ही पुत्र श्रीयक द्वारा शिरोच्छेद करवाकर उन्होंने अटूट राजभक्ति का परिचय दिया।१५६ शकडाल की मृत्यु के पश्चात् स्थूलभद्र के पास अमात्यपद ग्रहण करने के लिए नरेश्वर नन्द ने निमंत्रण भेजा तो स्थूलभद्र की मोह-तन्द्रा को एक झटका-सा लगा। उन्होंने चिन्तन की गहराई में डुबकी लगाई-यह (अमात्य का) पद सदैव राजा से ही अनुशासित रहा है, रहता है। मेरे पिता की मृत्यु का प्रमुख कारण भी यही बना। अतः मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि मैं राजतंत्र के प्रपंचों में पड़कर अपनी आत्मा को अकल्याण की ओर न ले जाकर, स्व-पर-कल्याणकारक श्रमण-पथ पर ले जाऊँ। फलतः स्थूलभद्र ने प्रेय से श्रेय की ओर यानी भोग से योग की ओर जाने का निश्चय करके आचार्य सम्भूतविजय के चरणों में पहुँचकर ३० वर्ष की वय में, वीर निर्वाण १४६ (विक्रम पूर्व ३२४) में श्रमण-दीक्षा अंगीकार की। संयम ग्रहण के बाद उन्होंने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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