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७२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
आनन्द की अनुभूति
इन्द्रिय, मन और बुद्धि हमारे सामने हैं। ये अपने आलोक से आलोकित नहीं हैं। जो इन्हें आलोकित करता है वह पर्दे के पीछे है। वह अध्यात्म है। स्वतन्त्रता की मांग वहीं से आ रही है। पूर्णता का स्वर वहीं से उठ रहा है। आनन्द की उर्मि वही से उच्छलित हो रही है। बटन दबाते ही बल्ब प्रकाशित हो उठता है । किन्तु उस प्रकाश का स्रोत बल्ब नहीं है। प्रकाश का स्रोत बिजलीघर ( पावर हाउस) है। चैतन्य का स्रोत इन्द्रिय, मन और बुद्धि नहीं है, किन्तु अध्यात्म है । वह हर व्यक्ति में अनन्त सागर की तरह लहरा रहा है।
इससे दुःख की परम्परा विच्छिन्न हो जाती है।
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जिस क्षण में स्वतन्त्रता की अनुभूति नहीं है, वह क्षण धर्म के स्रोत से अनुस्यूत नहीं है । जिस क्षण में पूर्णता की अनुभूति नहीं है, वह क्षण धर्म के स्रोत से अनुस्यूत नहीं है। जिस क्षण में आनन्द की अनुभूति नहीं है, वह क्षण धर्म के स्रोत से अनुस्यूत नहीं है। जहां प्रकाश के स्रोत की अनुस्यूति नहीं है, वहां प्रकाश कैसे होगा ?
६. दुःख - मुक्ति का आश्वासन
मानवीय प्रवृत्ति का एक ही लक्ष्य है और वह है-दुःख-मुक्ति, विधि की भाषा में सुख की उपलब्धि । प्रत्येक धर्मशास्त्र दुःख - मुक्ति का आश्वासन देता है । जिस पद्धति में दुःख - मुक्ति का आश्वासन नहीं है, उसके प्रति जनता आकृष्ट नहीं हो सकती । किन्तु एक प्रश्न है, धर्म के द्वारा दुःख - मुक्ति का जो आश्वासन मिला है, वह पूरा हो रहा है? यदि हो रहा है तो धर्म के प्रदीप को प्रचण्ड तूफान भी नहीं बुझा सकेगा । यदि वह नहीं हो रहा है तो यह अनुसन्धेय है कि त्रुटि ( १ ) औषध में है, (२) औषध देने वाले में है, (३) औषध लेने में है या ( ४ ) औषध लेने वाले में है ?
(१) यदि त्रुटि औषधि में है तो उसे छोड़ कोई दूसरी औषधि लेनी होगी ।
(२) यदि वह देने वाले मैं है तो दूसरे डॉक्टर की शरण लेनी होगी ।
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