Book Title: Main Mera Man Meri Shanti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 214
________________ २०० मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति करोड़पति है, दूसरा भूखा है, यह अन्याय मान लिया गया है। . न्याय का आधार समता है। एक शब्द में कहूं तो विषमता अन्याय है, समता न्याय है। एकांगी कोण अन्याय है, सर्वांग-दृष्टि न्याय है। समता यान्त्रिक नहीं होनी चाहिए। यान्त्रिक वस्तुएं सम आकार-प्रकार की हो सकती हैं। मनुष्य में यदि यान्त्रिक समता हो तो चैतन्य का मूल्य ही क्या? मनुष्य के अस्तित्व का अर्थ ही है-यान्त्रिक समता से मुक्ति पाना। बाह्य आकार में फलित होने वाली समता मुझे कभी प्रभावित नहीं कर सकी। विविधता दुःखद नहीं, सुखद होती है। दिल्ली में एक ही प्रकार के पेड़ हों तो मन को नहीं भाते। पुराने जमाने में राजा किसी को दण्ड देता था तो उसे एक ही रंग के मकान में रख देता था। परिणामतः आंख विकृत हो जाती। दूसरी चीजें देखने को न मिलने से आंखों का प्रकाश कम हो जाता। मनुष्य विविधता चाहता है। नाना प्रकार की वस्तुएं मन को लुभाती हैं। एक व्यक्ति की तरह सबका आकार और कद होता तो सौन्दर्य नहीं होता। किसी की पहचान का मौका नहीं मिलता। एक को देखने से सबका ज्ञान हो जाता, अलगाव जैसा कुछ होता ही नहीं। बाह्य वातावरण में समता न फलित होने वाली है और न वांछनीय ही है। व्यक्ति के अन्तःकरण में समता होनी चाहिए, वर्ण-प्रकार भले ही भिन्न हो। अन्तर में समता हो तो बाह्य विषमता दुःखदायी नहीं होती। मन का द्वैध बाह्य में फलित होने से कष्ट होता है। बिल्ली अपने दांतों से बच्चे को पकड़ती है और चूहे को पकड़ती है। दांत एक ही हैं। दांतों के पीछे मन की क्रिया भिन्न है। एक के पीछे वत्सलता है, दूसरे के पीछे क्रूरता । एक व्यक्ति पुत्री से आलिंगन करता है और पत्नी से भी आलिंगन करता है। आलिंगन समान है पर मन की क्रिया भिन्न-भिन्न है। हाथ सहज उठता है। तर्जना के समय अंगुली उठाने पर स्वरूप बदल जाता है। तर्जना की शक्ति कहां है, अंगुली में या मन में? मन में तर्जना का भाव आते ही अंगुली उठ जाती है। घृणा का भाव आते ही अंगूठा दिखा दिया जाता है। बिजली के करेंट की तरह मन का प्रवाह बाहर फूट पड़ता है। विषमता का मूल अन्तःकरण है। वह वाणी के द्वारा अभिव्यक्त होता है। क्रोध के समय भृकुटि में तनाव आ जाता है। घृणा में नाक सिकुड़ जाती है। भाषा भाव की अभिव्यक्ति के लिए बनी है। स्थायी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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