Book Title: Main Mera Man Meri Shanti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 212
________________ १६८ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति दिल में एक विचार आया। यह तो केवल आज्ञा चलाता है। व्यापार हम करते हैं, पूछ इसकी होती है। असहिष्णुता का भाव आया और सब अलग-अलग हो गए। परिणाम यह हुआ कि जो प्रमुख था, वह कुशल था, इसलिए उसने कुशलता से अपना काम जमा लिया। शेष कठिनाई में पड़ गए। दूसरों को नीचा दिखाने का भाव भी असहिष्णुता से आता है। एक सेठ के घर दो पंडित आए। एक पण्डित कार्यवश इधर-उधर गया। सेठ ने दूसरे से पहले का परिचय पूछा। उसने कहा-'मेरा अधिक सम्पर्क नहीं है, अभी साथ हुए थे। लगता है यह तो बना-बनाया बैल है।' पहला पंडित आया तो दूसरा किसी कार्यवश बाहर गया। उससे दूसरे पंडित का परिचय पूछा गया तो उत्तर मिल-'यह तो पंडित क्या है, गधा है। सेठ ने भोजन के समय एक के सामने चारा और एक के सामने भूसा रख दिया। पंडितों ने अपना अपमान समझा। सेठ ने कहा- 'मुझे तो यही परिचय मिला था। दोनो पंडितों के सिर झुक गए। किसी भी क्षेत्र में चले जाइए। एक कलाकार दूसरे कलाकार की, एक साहित्यकार दूसरे साहित्यकार की, एक धार्मिक दूसरे धार्मिक की प्रगति को सहन न करे, उसकी प्रशंसा न करे तो क्या कला, साहित्य और धर्म का उत्कर्ष हो सकता है? लोग चाहते हैं समाज सुखी हो, सर्वत्र शान्ति हो। सुख-शांति क्यों नहीं है? इस प्रश्न पर विचार करते समय सीधा ध्यान अर्थ-तंत्र और राज-तंत्र की अव्यवस्था पर जाता है। यह सत्य है कि बाह्य-व्यवस्था का असर होता है। पर व्यक्ति के अपने स्वभाव का असर होता है, उस ओर ध्यान नहीं जाता। यह बाह्य के प्रति जागरूकता और अध्यात्म के साथ आंखमिचौली है। लोग सोचते हैं, अध्यात्म से क्या? उससे न रोटी मिलती है, न कपड़ा और न मकान। रोटी, कपड़ा और मकान जिसके लिए है वह, मनुष्य और उसका निर्माण अध्यात्म से होता है। जिसके लिए वस्तुएं हैं, उसका यदि निर्माण न हो तो रोटी, कपड़े और मकान का क्या होगा? पदार्थ का अपने आप में मूल्य नहीं है, मूल्य है व्यक्ति का। चैतन्य में आनन्द-उल्लास नहीं है और बाहर सब-कुछ प्राप्त है तो उस एक चैतन्य के अभाव में सब व्यर्थ हो जाते हैं। शेष पर ध्यान न दें, यह मैं नहीं कहता। मैं यह कहता हूं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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