Book Title: Main Mera Man Meri Shanti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 213
________________ न्याय का विकास १६६ कि विशेष ध्यान मनुष्य पर दें। मनुष्य के मन को शान्त-संतुलित बनाने की प्रक्रिया न होगी तो वह प्राण-शून्य होगा। सारी अच्छाइयों और सारी बुराइयों का उत्स मन है। मन की क्षमता को बढ़ाने के लिए सहिष्णुता का विकास आवश्यक है। मन की शक्ति का विकास सहिष्णुता का विकास है। मन की शान्ति का ह्रास सहिष्णुता का ह्रास है। ६. न्याय का विकास न्याय क्या है? एक नीति शब्द है, एक न्याय शब्द है। नीति का अर्थ है-ले जाने वाली। नीति मार्ग है और न्याय लक्ष्य है। जहां पहुंचना है, वह न्याय है। इसका शाब्दिक अर्थ है-वापस आना। पक्षी दिन में उड़ जाते हैं और शाम को वापस घोंसले में आते हैं। संस्कृत शब्दानुशासन के न्यायों की बूढ़े की लाठी से तुलना की गई है-'न्यायाः स्थविरयष्टिप्रायाः।' आवश्यकतावश बूढ़ा लाठी को टिकाता है, नहीं तो हाथ में ले चलता है। सब जगह उसे टिकाना अनिवार्य नहीं है। शायद हर न्याय की यही स्थिति है। समयानुसार न्याय के रूप भी बदलते रहे हैं। इतिहास बताता है, सामन्तशाही युग में दास को रखना न्याय था। राज्य-सम्मत था। दास का कार्य था मालिक की सेवा करना। स्वतन्त्र रहना उसके लिए अन्याय था। मालिक चाहते तो कान काट लेते, नाक काट लेते, और भी अंगच्छेद कर देते, मौत का दण्ड भी दे देते थे। वैसा करना मालिक के लिए अन्याय नहीं था। उस युग में एक व्यक्ति चाहे जितना धन रख सकता था। दूसरे के पास कुछ भी नहीं होता, फिर भी वह अन्याय नहीं माना जाता था। शक्ति और धन का अनुबन्ध मान लिया गया था। धर्म के क्षेत्र में न्याय का रूप था-पति के साथ पत्नी जीवित जल जाती थी। इसे धर्म का अनुमोदन मिलता था। इस प्रकार सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक क्षेत्र में न्याय के भिन्न-भिन्न रूप थे। ___ आज उन न्यायों का रूप बदल चुका है। दास की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती। नौकर के साथ क्रूर व्यवहार घृणित कार्य माना जाता है। संग्रह भी लगभग अन्याय की दहलीज पर आ खड़ा है। एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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