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ममत्व का विसर्जन या विस्तार १८७
मेरे से भिन्न को धोखा देने में संकोच नहीं होता । यह मेरा है, यह मेरा नहीं, इस भेद-बुद्धि के पीछे अन्याय और शोषण पल रहा है । विसर्जन की प्रक्रिया ही विस्तार की प्रक्रिया है । अमुक के प्रति मेरापन है, उसे निकाल दो और सबको मेरा मान लो । ममत्व की संकुचित सीमा में अपना और पराया - यह द्वैध रहता है । इसलिए वहां अपना लाभ और दूसरे की हानि - इस स्थिति को अवकाश है । ममत्व की मर्यादा विस्तृत होने पर स्व-पर का द्वैध नहीं रहता । इसलिए वहां किसी के लाभ और हानि की स्थिति प्राप्त ही नहीं होती ।
आकिंचन्य का अर्थ है - कुछ नहीं । मेरा कुछ नहीं, यानी सब कुछ मेरा है । आचार्यश्री से एक भाई ने पूछा- आपका हेडक्वार्टर कहां है? आचार्यश्री ने उत्तर दिया- कहीं नहीं है । कहीं नहीं यानी सर्वत्र जहां जाते हैं वहीं हेडक्वार्टर बन जाता है । वह एक स्थान पर होता तो वहीं होता, सर्वत्र नहीं होता । जिस दिन यह अनुभूति होगी कि मेरा कुछ नहीं है, उस दिन तीन लोक की सम्पदा अपनी हो जाएगी। कहा भी है
'अकिंचनोहमित्यास्व, त्रैलोक्याधिपतिर्भवे । योगिगम्यमिदं प्रोक्तं, रहस्यं परमात्मनः ॥'
अब व्यवहार की भूमिका पर आइए । साम्यवाद ममत्व - विसर्जन की प्रक्रिया है । सिद्धान्ततः साम्यवाद बुरा नहीं है । जिस पद्धति से आज वह क्रियान्वित हो रहा है, उसे मैं अच्छा नहीं मानता। साम्यवादी शासन में लड़का जन्मता है, तब से वह राष्ट्र की सम्पत्ति है। धन और मकान भी अपने नहीं हैं। शरीर पर भी अपना अधिकार नहीं है । यह शासन की प्रक्रिया है। इसमें हृदय का सम्बन्ध नहीं होता, बलाभियोग होता है । ममत्व - विसर्जन की प्रक्रिया धार्मिक हो तो वह हार्दिक हो सकती है। धर्म का मूल मंत्र है - भेद - विज्ञान |
भेद - विज्ञान - यानी शरीर और आत्मा के पृथक् अस्तित्व का स्वीकार । यही सम्यक् - दर्शन है। सांख्य दर्शन में इसे विवेकख्याति कहा गया है। देह में आत्मीय बुद्धि हो तो विशाल ज्ञान होने पर भी सम्यक्-दर्शन प्राप्त नहीं होता । भारतीय धर्म ममकार - विसर्जन पर बल देते रहे हैं । अब उसे प्रायोगिक रूप देने की आवश्यकता है । उसमें भाव,
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