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१६२ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
की स्थिति जीवन में हो तो क्रूरता नहीं पनप सकती । अपनेपन की तीव्रता से क्रूरता विकसित होती है, अहिंसा या दया की बातें क्षीण हो जाती हैं । स्वार्थ का पोषण सहानुभूति के अभाव में होता है। संघर्ष, द्वन्द्व आदि सहानुभूति के अभाव में ही फलते हैं । सामाजिकता का स्वीकार और सहानुभूति का तिरस्कार- इन दोनों में परस्पर विरोध है ।
शुद्धोपयोग सामाजिक जीवन में भी वैयक्तिकता की स्थिति है। उसमें केवल होने से आगे - अपने अस्तित्व के सिवाय कुछ नहीं है । यह मानसिक क्लेशों से मुक्त होने की प्रक्रिया है । साम्ययोग, चित्त निरोध, ध्यान या शुद्धोपयोग वह स्थिति है, जहां चेतना के व्यापार में बाह्य विषय की संलग्नता नहीं होती । मानसिक क्लेश शुद्धोपयोग के साथ बाह्य योग होने से होता है । 'मैं सुखी हूं', यह शुद्धोपयोग नहीं है। मेरे साथ सुख का भाव जुड़कर मेरे अस्तित्व को गौण बना देता है। सुख
प्रतीति- सापेक्ष है, वह स्वाभाविक नहीं है । 'मैं दुःखी हूं', यह क्लेश की अनुभूति है । सुखानुभूति, दुःखानुभूति, क्लेशानुभूति - इन सारी अनुभूतियों से अलग सहज आनन्द की स्थिति है, वह शुद्धोपयोग है
यदि हम शुद्धोपयोग की भूमिका में होते तो सहानुभूति की आवश्यकता नहीं होती । मेरी अनुभूति का दूसरे के साथ तारतम्य नहीं होता । किन्तु हम लोग अनुभूति की भूमिका पर जी रहे हैं, इसलिए सम्पर्क - सूत्रों से मुक्त नहीं होते। भले फिर वे साधु हों, तपस्वी हों या व्यापारी हों, भले फिर वे प्रवृत्ति में संलग्न हों या निवृत्ति में, सामाजिकता का प्रश्न उनसे विच्छिन्न नहीं होता ।
जब तक हम शरीर, मन और वाणी से संपृक्त हैं, तब तक हमारा सहानुभूति की भूमिका से अलग होना सम्भव नहीं है । सहानुभूति की मर्यादा यह है कि हम अपनी बाह्य स्वतन्त्रता का उपयोग दूसरों की स्वतन्त्रता के संदर्भ में करें।
यदि हम दादा धर्माधिकारी को अतिथि मानेंगे तो उनकी स्वतन्त्रता बाधित होगी, हम पर भी भार होगा । हम भी मनुष्य हैं । वे भी मनुष्य हैं। मनुष्य - मनुष्य का सीधा सम्बन्ध है । न हम इनके तंत्र से बाधित हैं और न ये हमारे तन्त्र से बाधित हैं । मुक्तता के लिए मनुष्य का केवल मनुष्य होना आवश्यक है। मनुष्य का मनुष्य के नाते मनुष्य से सीधा
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