Book Title: Main Mera Man Meri Shanti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 207
________________ सम्बन्ध होना चाहिए । 1 आज का सम्बन्ध ऐसा नहीं है। किसी का धनी के नाते सम्बन्ध है । एक की आवश्यकता है और एक के पास धन देने की क्षमता है यह दाता और आदाता का सम्बन्ध है । इसी प्रकार मालिक और नौकर, संरक्षक और संरक्षित आदि-आदि अनेक सम्बन्ध हैं । सहानुभूति १६३ जितने भी ऐसे सम्बन्ध हैं, वे मानवीय आधार पर नहीं हैं, योगज हैं। हमारे शब्द - जगत् की निष्पत्ति अधिक योगज है । शुद्ध शब्द कम हैं । शब्द तीन प्रकार के हैं- रूढ़, यौगिक और मिश्र । रूढ़ शब्द कम हैं 1 अधिकांश शब्द यौगिक और मिश्र हैं । सामाजिक चेतना में परस्परता का भाव है, उससे मुक्त होकर कोई जी नहीं सकता। किसी व्यक्ति को मोटर, रेडियो आदि आधुनिक सुख-सुविधा प्राप्त हो लेकिन पिता की सहानुभूति प्राप्त न हो तो पुत्र को कारा की - सी अनुभूति होगी । हर व्यक्ति प्रेम चाहता है । उसका अभाव हो तो कभी-कभी व्यक्ति जीवन से ऊब उठता है । सामाजिक स्तर पर जीने वालों के लिए सहानुभूति का सूत्र आवश्यक लगता है। वीतरागता बहुत अच्छी है, किन्तु उसका कृत्रिम प्रदर्शन - अपने स्वार्थ का उत्कर्ष - अच्छा नहीं है । 'मैंने पीया, मेरा बैल पीया, कुआं चाहे ढह पड़े'-- क्या यह वीतरागता है? यह तो केवल अपने स्वार्थ का पोषण है । स्वार्थ में दूसरों के लिए चिन्ता का अवकाश नहीं रहता । वीतरागता में 'भूति' की क्रिया इतनी प्रबल हो जाती है कि वहां अनुभूति को अवकाश नहीं रहता । समस्या वहां है, जहां अनुभूति हो और 'सह' का अवकाश हो । दो व्यक्ति सह-भोजन करते हैं। एक के खाने से दूसरे का पेट नहीं भरेगा । पेट खाने वाले का ही भरेगा। जितनी मात्रा में खाएगा, उतना ही पेट भरेगा । इस वैयक्तिक मर्यादा को अस्वीकार नहीं किया जा सकता । सह-भोजन में मन को तोष मिलता है। खाने की तृप्ति और मनः तृप्ति 'सह' के कारण हुई है। जहां भी 'सह' की स्थिति आती है समस्याएं सुलझ जाती हैं। छोटे सोचते हैं, बड़े लोग हमारे साथ नहीं । छोटी उम्र वाले सोचते हैं, बड़ी उम्र वाले हमारे साथ नहीं हैं। साथ रहते हैं, फिर भी साथ नहीं हैं । यह अलगाव की अनुभूति सामाजिकता का प्रश्नचिह्न है । इसका समाधान होने पर ही सामाजिक सौन्दर्य सम्भव है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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