Book Title: Main Mera Man Meri Shanti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 200
________________ १८६ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति __ मुनिश्री-ध्यान की प्रक्रिया यही है। एक ध्येय है। मैं अपने आप में इतना शून्य हो जाऊं कि वह मुझमें समाविष्ट हो जाए। ध्येय-आविष्ट का अर्थ है-ध्यान। आचार्य रामसेन ने इस शून्यीकरण को बहुत महत्त्व दिया है। उन्होंने लिखा है 'यदा ध्यानबलाद् ध्याता, शून्यीकृत्य स्वावग्रहम् । ध्येयस्वरूपाविष्टत्वात्, तादृक् संपद्यते स्वयम् ॥' ध्याता ध्यान के बल से अपने शरीर को शून्य कर लेता है। तब वह ध्येय स्वरूप में आविष्ट होकर वैसा ही बन जाता है। प्रेम के विस्तार का भी यही सूत्र है। चैतन्य के प्रति इतना प्रेम हो कि शरीर और मन अन्य भावों से शून्य हो कर प्रेममय बन जाएं। ३. ममत्व का विसर्जन या विस्तार ममत्व के विसर्जन से ममत्व का विस्तार हो जाता है और ममत्व के विस्तार से ममत्व विसर्जित हो जाता है। इन दोनों में शब्द-भेद होने पर भी अर्थ-भेद नहीं है। अहंकार और ममकार, ये दो मोह-व्यूह के सेनापति हैं। मोह की युद्धकालीन रचना बड़ी अभेद्य होती है। ममकार का अर्थ है-अनात्मीय में आत्मीयता का आरोपण। मेरा घर, मेरा परिवार, मेरा शरीर आदि-आदि। सबसे निकट शरीर है। शरीर से लेकर बाह्य वस्तुओं को अपना मानना ममकार है। ममकार अशान्ति का हेतु है। जिसके प्रति ममत्व हो, उसके योग में हर्ष और वियोग में कष्ट होता है। अपना लड़का कहना नहीं मानता तो अधिक कष्ट की अनुभूति होती है। दूसरे का लड़का यदि कहना न माने तो उतना कष्ट नहीं होता, क्योंकि वह पराया है। ममत्व की रेखा ही व्यक्ति-व्यक्ति के बीच भेद डालती है। ममत्व के बाद उसके विसर्जन की बात आती है। यह मेरा नहीं है, इतना कहने मात्र से ममत्व से मुक्ति नहीं मिलती। हमने अमुक-अमुक को अपना मान रखा है। फलस्वरूप जो मेरा है, उसके प्रति अनुराग और जो मेरा नहीं है, उसके प्रति द्वेष हो जाता है। मेरे की सुरक्षा के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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