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१२४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
कि मैं मानता हूं वह सत्य है, तो फिर वह निरापद भी हो सकता है किन्तु मैं मानता हूं उसके सिवा शेष सब मानते हैं वह असत्य है-यह
आकार निरापद नहीं है। आज अधिकांशतः यही आकार चल रहा है। इसीलिए सम्प्रदाय परस्पर विरोधी बन रहे हैं।
सम्प्रदाय परम्परा के वाहक होते हैं। प्रभावशाली आचार्य की विचारधारा का आकार सम्प्रदाय और उसका अनुगमन परम्परा हो जाती है। हर सम्प्रदाय और परम्परा का सत्यांश से सम्बन्ध होता है। कोई सत्य से अधिक सम्बद्ध होता है और कोई कम। किन्तु पूर्ण सत्य की अभिव्यक्ति तो व्यक्ति के आत्मोदय में ही होती है। सत्य-जिज्ञास मुख्य रूप से साध्योन्मुख होता है और गौण-रूप से साधनोन्मुख। साम्प्रदायिक व्यक्ति मुख्य रूप से साधनोन्मुख होता है और गौण-रूप से साध्योन्मुख।
सम्प्रदाय में रहने वाला कोई सत्य-जिज्ञासु नहीं होता और सम्प्रदाय में न रहने वाला कोई आग्रही या रूढ़ नहीं होता, यह मानना भी भ्रान्ति है। यदि सम्प्रदाय और सत्य-जिज्ञासा में विरोध होता तो आज तक या तो सम्प्रदाय का अस्तित्व मिट जाता या सत्य-जिज्ञासा निश्शेष हो जाती। दोनों का अस्तित्व है। इसका अर्थ है कि सम्प्रदाय और सत्य-जिज्ञासा में विरोध नहीं है।
सम्प्रदायों में इसलिए विरोध नहीं है कि वे भिन्न विचारधारा के पोषक हैं किन्तु विरोध इसलिए है कि उनका अनुगमन करने वालों में सत्य की जिज्ञासा कम है। ___यदि हम चाहते हैं कि सम्प्रदायों में समन्वय हो, सामंजस्यपूर्ण स्थिति हो, मैत्री हो तो हमें इस चाह से पहले यह चाह करनी चाहिए कि साम्प्रदायिक लोगों में सत्य की जिज्ञासा प्रदीप्त हो। आज सत्य की जिज्ञासा कितनी मन्द है, इसे मैं जैन सम्प्रदायों की वर्तमान मनोदशा से ही व्यक्त करूंगा। ___आज जैन-साधुओं के आचार-व्यवहार में कोई थोड़ा-सा परिवर्तन होता है तो अनेक लोग संशयालु बन जाते हैं। उनके मुंह पर एक ही प्रश्न होता है-'यह कैसे हुआ? पहले तो ऐसा नहीं किया जाता था, अब कैसे किया जा रहा है? 'अब ऐसा करना उचित है या अनुचित'-यह प्रश्न कम होता है। उचित-अनुचित की मीमांसा की जा सकती है पर
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