Book Title: Main Mera Man Meri Shanti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh
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१७८ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
छानबीन कर सकते हैं पर शरीर से मुक्त चैतन्य को जानने के आपके पास साधन कहां हैं? हमारे पास ज्ञान के साधन पांच इन्द्रियां हैं। वे शब्द, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श को जान सकती हैं। उनको शरीर द्वारा जाना जा सकता है, उसमें विद्यमान चैतन्य को नहीं जाना जा सकता। यदि आप शरीर और चैतन्य की भिन्नता जानना चाहते हैं तो उसका साधन ध्यान है। समुचित मात्रा में ध्यान करने पर आपको यह अनुभूति न हो तो मुझे आश्चर्य होगा।
जैनेन्द्र-धर्म में से पराक्रम निकले तब अध्यात्म सम्पन्न होता है. अन्यथा शैथिल्य रहता है। अन्याय होता है।
मुनिश्री-उत्थान, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम-ये पांच शब्द हैं। इनसे मुक्त कोई भी धर्म-क्रिया नहीं है। इनका उपयोग रण क्षेत्र में भी हो सकता है और धर्मक्षेत्र में भी हो सकता है और व्यापार में भी हो सकता है। जो पराक्रम शून्य है वह निकम्मा है। यह मान लिया कि जो धार्मिक है, उसे सहिष्णु होना चाहिए। एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल सामने कर देना चाहिए। इसमें पराक्रम की भावना नहीं, हीनता आ गई है। उपवास चैतन्य का पराक्रम है। आज उपवास 'न खाना' मात्र रह गया है।
जैनेन्द्र-'जिन' शब्द में भी पराक्रम था। राजेन्द्र-जैनेन्द्र में भी है।
जैनेन्द्र-जैनेन्द्र में 'जिन' के साथ 'इन्द्र' का योग आ गया। समर्पण हीनभावना नहीं है। हीन-भावना के कारण अपने को कुछ न मानना नपुंसकता है। प्रार्थना में हीन-भावना नहीं, नम्रता है, आकिंचन्य है।
मुनिश्री-आकिंचन्य में तीन लोक का प्रभुत्व है।
सापेक्षता
सापेक्ष व्यवहार अर्थात् सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार। सामाजिक प्राणी को हर स्थिति में अपेक्षा रहती है। समाज का आधार ही सापेक्षता है। उससे प्रेम का वातावरण बनता है। उपेक्षा से उदासीनता आती है और दूरी बढ़ती है। आचार्यश्री महोत्सव के दिनों में अधिक व्यस्त रहते हैं। व्यस्तता के कारण किसी की बात को ध्यान से नहीं सुना जाता तो वह
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