Book Title: Main Mera Man Meri Shanti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 193
________________ सत्-व्यवहार १७६ समझता है मेरे प्रति निरपेक्ष व्यवहार हो रहा है। यह साधुओं की स्थिति है, दूसरों की स्थिति तो और अधिक चिन्तनीय होगी। हर व्यक्ति चाहता है मेरी अपेक्षा हो। अपेक्षा का सम्बन्ध मधुर होता है। सापेक्षता में कठोर व्यवहार भी खलता नहीं है। अच्छा व्यवहार करते हुए भी निरपेक्षता झलके तो सामने वाला कहेगा, यह तो ऊपर का व्यवहार है, दिखावा है। परिवार में कटुता आती है, उसके पीछे निरपेक्षता रहती है, जितनी सहानुभूति की आवश्यकता होती है, उसका अभाव रहता है। मैंने अपने जीवन में अनुभव किया है। मैंने अपनी व्यस्तता के कारण कभी-कभी आवश्कयता से कम बातचीत की, फलतः मुझे अव्यावहारिक बताया गया। मैंने उसके साथ असत् व्यवहार नहीं किया, फिर भी सापेक्षता नहीं बरती जितनी सामाजिक जीवन में बरतनी चाहिए थी, इसीलिए मैं अव्यावहारिक बन गया। घर के मुखिया इस ओर सजग नहीं होते तब प्रतिक्रिया होती है। इसीलिए प्रमुख व्यक्ति इस ओर सजग रहते हैं। आचार्यश्री ने इसी वर्ष मर्यादा-महोत्सव के दिनों में साधु-साध्वियों से कहा कि जिसको आवश्यकता हो, वह मुझसे समय मांग ले। उन्होंने एक-एक को आमंत्रित कर बातचीत की। दस मिनट की बातचीत में आचार्यश्री उन्हें क्या दे देते हैं? फिर भी वे सापेक्षता के वातावरण में पा अपने को सार्थक मानते हैं, कृतकृत्य हो जाते हैं। कृतार्थता सापेक्षता से आती है, प्राप्ति से नहीं। चन्दन-क्या यह राग नहीं है? मुनिश्री-अनुराग है। अभी हम धर्मानुराग से रक्त हैं। सम्यक् दर्शन के आठ सूत्र हैं। उनमें एक वात्सल्य है। वात्सल्य के बिना एकसूत्रता नहीं रहती। उससे कई बातें फल जाती हैं। वात्सल्य से कठोर अनुशासन भी कर सकते हैं, प्रायश्चित्त भी दे सकते हैं, ऐसी परिस्थिति में भी डाल सकते हैं, जिसकी कल्पना करना कठिन है। वात्सल्य का धागा सहानुभूति की सुई में सहज ही पैठ जाता है। अनुराग और विराग दो नहीं हैं। एक के प्रति अनुराग ही दूसरे के प्रति विराग है। आत्मा, परमात्मा, मोक्ष या धर्म के प्रति जो अनुराग है, वह शुद्ध है। चन्दन-क्या वात्सल्य या अनुराग मोह नहीं है? । मुनिश्री-हो सकता है पर सामाजिक जीवन के सम्बन्धों से उसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230