Book Title: Main Mera Man Meri Shanti
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 173
________________ ग्रन्थि-मोक्ष १५६ मिथ्यादर्शन-यह ग्रन्थिपात का प्रमुख कारण है। हमारी मान्यताएं जितनी विपर्यस्त होती हैं उतनी ही मानसिक ग्रन्थियां पड़ती हैं। उनसे हम यथार्थ को छोड़ अयथार्थ को स्वीकार कर लेते हैं। कहीं हम संदिग्ध हो जाते हैं और कहीं विपर्यस्त। एक के प्रति सन्देह होने से उसके प्रति अनायास विरोध के भाव जागते हैं और उसे हम शत्रु मान बैठते हैं। सम्राट् श्रेणिक की रानी चिल्लणा सो रही थी। हाथ बाहर रह गया था। सर्दी से रानी का हाथ ठिठुर गया। जब वह जगी तो उसके मुंह से निकला, 'वह क्या करता होगा! राजा ने इस वाक्य को सुना। उसने निर्णय किया, रानी का आचरण अच्छा नहीं है, यह किसी से प्रभावित है। प्रातःकाल होते ही राजा ने अभयकुमार को आदेश दिया कि 'महल जला डालो।' महल को जलाने के पीछे राजा का सन्देह था। रानी के मुंह से अनायास ही मुनि की स्थिति फूट पड़ी, जो खुले में ध्यान कर रहा था और जिसे कल ही रानी ने देखा था। ऐसा कौन है, जो सन्देह के कारण ऐसा नहीं करता। स्थल में चाकचिक्य के कारण जल की कल्पना कर मृग दौड़ता है, वैसे हम विपर्यस्त दृष्टिकोण से चलते हैं। अशाश्वत को शाश्वत, आत्म को अनात्म और दुःख को सुख मान लेते हैं। आज का धनी-वर्ग और शासक-वर्ग इसी आधार पर चल रहा है। क्या सत्ता का जो प्रयोग हो रहा है, वह वांछनीय है? क्या इतना धन संग्रह करना वांछनीय है? यह सब विपरीत दृष्टिकोण के कारण हो रहा है। ___ मानसिक आकांक्षा-हरेक को जीवन की प्राथमिक आवश्यकता पूरी करनी होती है पर आकांक्षा उससे आगे चलती है। दूध पीने पर रसानुभूति होती है। जब वह आकांक्षा में बदल जाती है, तब वह अनबन्ध बन जाती है। एक दिन दूध पीने से वासना नहीं होती। जो प्रतिदिन दूध पीता है, वह यदि एक दिन नहीं पीता तो उसे कमी का अनुभव होता है। वह कोरी आवश्यकता ही नहीं है, उससे अतिरिक्त भी है, वह है-आकांक्षा। प्रतिदिन का अभ्यास इतना पुष्ट बन जाता है कि आवश्यकता आकांक्षा का रूप ले लेती है। कोई भी शरीरधारी अपेक्षा से मुक्त नहीं है पर उसमें तरतमता होती है। जल की लकीर, बालू की लकीर, मिट्टी की लकीर और पत्थर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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