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१५० मैं: मेरा मन : मेरी शान्ति
प्राणवायु को वश में करने की प्रक्रिया है-नाभि-दर्शन | नाभि पर दृष्टि टिकाने की दो पद्धतियां हैं :
(१) सीधा लेटकर सोने के बाद सिर को थोड़ा-सा ऊपर उठाकर नाभि को देखना |
( २ ) जालंधर बंध कर नाभि को देखना ।
४. अपानवायु और मनः शुद्धि
अपानवायु का मुख्य स्थान नाभि से नीचे और पृष्ठभाग के पाष्णिदेश तक है। उसका कार्य है मल, मूल, वीर्य आदि का विसर्जन करना अर्थात् बाहर निकालना। उसके विकृत होने से मन में अप्रसन्नता होती है और उसकी शुद्धि से प्रसन्नता होती है। नीचे के भाग में होने वाले मस्सा आदि तथा वीर्य-सम्बन्धी रोग अपानवायु दूषित होने से होते हैं, उसकी शुद्धि में नहीं होते । अपानवायु का सम्बन्ध पेट-शुद्धि से ही है । पेट की अशुद्धता में कोष्ठबद्धता हो जाती है तथा कृमि आदि जीव पैदा हो जाते हैं । उसकी शुद्धि के लिए अश्विनी मुद्रा तथा नाभि पर ध्यान करना श्रेष्ठ प्रयोग है I
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शरीर की शक्ति का स्रोत नाभि और गुदा के बीच में है । अपान को जीतने से शक्ति का स्रोत विकसित होता है। घोड़े की शक्ति का रहस्य उसकी संकोच -विकोच की मुद्रा है । अपानवायु दूषित हो जाए तो सौ बार अश्विनी मुद्रा करने से शुद्ध होती है। मूलबन्ध भी इसमें सहयोगी बनता है । प्राणवायु को बाहर निकाल कर यथाशक्ति रोकने से भी अपानवायु शुद्ध होती है
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हठयोग का अर्थ है - प्राण और अपान का योग । 'ह' - सूर्य और 'ठ'–चन्द्र- 'हठ' का अर्थ है - सूर्य और चन्द्र का मिलना । रहस्यवादी कविगण ने सूर्य और चांद के मिलने की चर्चा की है। सूर्य और चांद का मिलन अर्थात् रात और दिन का मिलन | सूर्य और चांद का मिलन नाभि में होता है । मूलबन्ध के साथ श्वास को नाभि में ले जाने से प्राण और अपान का योग होता है, वैषम्य का विनाश होता है। वैषम्य ही मानसिक रोग, शारीरिक रोग और पाप है । साम्य ही स्वस्थता और धर्म
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