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धर्म की कसौटी ७५
७. धर्म की कसौटी
आज मेरी दृष्टि के सामने तीन शब्द नाच रहे हैं-प्रेक्षा, परीक्षा और प्रयोग। पहले का सम्बन्ध दर्शन से है, दूसरे का तर्कशास्त्र से और तीसरे का विज्ञान से। प्रेक्षा आत्मानुभूति का दर्शन है। जिसकी आंतरिक चेतना जागृत हो जाती है, वह सूक्ष्म, व्यवहित और दूरवर्ती दृश्य को देख लेता है। आज की भाषा में हम बुद्धि-व्यायाम को दर्शन कहते हैं। किन्तु वास्तविक अर्थ में वह दर्शन नहीं है। जहां दृश्य व्याप्ति या तर्कशास्त्रीय नियमों के माध्यम से ज्ञान होता है, वह दर्शन नहीं हो सकता। दर्शन में दृश्य और द्रष्टा का सीधा सम्पर्क होता है, किसी माध्यम के द्वारा नहीं होता ऐसा क्यों होता है? इसकी व्याख्या का प्रयत्न होता है, तब हम तर्कशास्त्र की परिधि में आ जाते हैं। दार्शनिक जगत् में ज्ञान है, अनुभूति है पर भाषा का प्रयोग नहीं है। भाषा माध्यम है और उसका प्रयोग परोक्षानुभूति के जगत् में ही होता है। तर्कशास्त्र का क्षेत्र परोक्षानुभूति या माध्यम द्वारा होने वाला ज्ञान है। तर्कशास्त्र और विज्ञान पढ़ाए जा सकते हैं, किन्तु दर्शन पढ़ाया नहीं जा सकता। वह व्यक्ति की अपनी ही चैतसिक निर्मलता या अनावरणता से उपलब्ध होता है। इस संदर्भ में मुझे यही कहना चाहिए कि प्रेक्षा की व्याख्या साधना के द्वारा ही की जा सकती है और वह उसी के द्वारा जानी जा सकती है। इस प्रसंग में यह उक्ति कितनी चरितार्थ होती है-गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं, शिष्यास्तु छिन्नसंशयाः।
जहां गुरु का मौन व्याख्यान और शिष्यों की मौन उपासना होती है, वहां दर्शन मुखर हो उठता है। भगवान् महावीर ने इसी अनुभूति के स्वर में कहा था-जो देखता है, उसके लिए शब्द नहीं हैं। इसी सत्य को मैं इस भाषा में प्रस्तुत करता हूं कि शब्द उसी के लिए हैं, जिसका सत्य के साथ सीधा संपर्क नहीं है। आज हम शब्द के माध्यम से सत्य की जिज्ञासा कर रहे हैं और वह इसलिए कर रहे हैं कि हमें प्रेक्षा प्राप्त नहीं है। संप्रति हमारे सामने दो ही धरातल हैं-एक परीक्षा का और दूसरा प्रयोग का। प्रेक्षा के धरातल की संप्राप्ति हमारे लिए असम्भव नहीं है। वह तदनुकूल साधना और पुरुषार्थ के अभाव में असंभव बन रही
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