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६४ मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति
गया। उस धर्म को वैज्ञानिक या अवैज्ञानिक कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
वर्तमान के मानस में धर्म की प्रतिमा श्रद्धा के साथ प्रतिष्ठित नहीं है। उसके साथ जुड़ा हुआ रक्त-रंजित इतिहास उसकी पावनता को स्वयं धूमिल किए हुए है। आज का चिंतनशील व्यक्ति धर्म के साम्प्रदायिक
और संगठित रूप के प्रति आश्वस्त नहीं है, हो भी नहीं सकता और होना भी नहीं चाहिए। इतना होने पर भी उसकी पकड़ कमजोर नहीं हई है। उसका कारण यही है कि हर व्यक्ति चैतन्य का ज्योतिपुंज है। उसकी ज्योति-रश्मियां जाने-अनजाने किसी क्षण भीतर में चली जाती हैं और धर्म-चेतना जागृत हो जाती है। व्यक्ति को ऐसा अनुभव होता है कि इस दुनिया में जो नहीं पाया, वह स्वयं में है। वह स्वयं का सत्य, स्वयंभू आनन्द और सहज शक्ति अतिरिक्त अनुभव होती है, जिसकी तुलना भौतिक समृद्धि से नहीं हो सकती। वर्तमान मानस में धर्म फिर योग के रूप में प्रतिष्ठित हो रहा है। लग रहा है कि लोग उसमें आज की समस्याओं का समाधान खोज रहे हैं और पा रहे हैं। जिसमें समाधान की शक्ति होती है, उसकी वैज्ञानिकता को कभी चुनौती नहीं दी जा सकती।
१३. यम और नियम
खेतों की सुरक्षा के लिए बाड़ और जल की सुरक्षा के लिए पाल की जाती है। बाड़ की उपयोगिता तभी है, जब खेती लहलहा रही हो और पाल की उपयोगिता तभी है जब बांध में जल हिलोरें भर रहा हो। जिस
खेत में खेती नहीं, वहां बाड़ के होने और न होने में क्या कोई अन्तर होगा? जिस बांध में पानी नहीं, वहां पाल के होने और न होने में क्या कोई अन्तर होगा? बाड़ और पाल का अपने आप में कोई उपयोग नहीं है। उनका उपयोग खेती और जल के होने पर ही है। नियम का उपयोग भी यम के होने पर है। यम पांच हैं- अहिंसा, सत्य, अचौर्य, बह्मचर्य और अपरिग्रह। नियमों की तालिका लम्बी हो सकती है।
जब-जब यमों पर पटाक्षेप होता है और नियम रंगमंच पर आ जाते
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