Book Title: Mahavira ka Punarjanma
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 11
________________ मृगापुत्र के अंतश्चक्षु उद्घाटित हो गए थे। कितना अमोल है उनका यह बोल-'मैं इस अशाश्वत शरीर में आनन्द नहीं पा रहा हूं, जो एक दिन विलग हो जाएगा। मुझे उस शाश्वत की खोज करनी है, जो सतत मेरे साथ रहे!' अनाथी मुनि ने भीतर की ज्योत्सना में झांक कर सम्राट श्रेणिक से कहा-'मगध के अधिपति श्रेणिक! तुम स्वयं अनाथ होकर मेरे नाथ कैसे बनोगे?' समुद्रपाल ने बंदी बने हुए चोर को देखा और भीतर की खिड़कियां एक साथ एक झटके में खुल गई। संबोधि ने उनका वरण कर लिया। __ अर्हत अरिष्टनेमि की अतीन्द्रिय चेतना जागृत थी। बाड़ों और पिंजरों में कैद किए हुए पशुओं और पक्षियों का स्वर उन कानों से सुना, जो दूसरों का अमंगल कर मंगल गीत सुनने को तैयार नहीं थे। ये सारे स्वर साक्ष्य हैं भीतर की चांदनी के। योगक्षेम वर्ष चिन्तन, मनन, प्रशिक्षण और प्रयोग का महान अनुष्ठान है। इसमें एक ओर आचार्यतुलसी की सन्निधि, दूसरी ओर सैंकड़ों-सैंकड़ों प्रबुद्ध साधु-साध्वियों की उपस्थिति, तीसरी ओर जनता। इन सबके बीच में जो विचार मंथन हुआ, वह द्वंद्व की स्थिति में भी निर्द्वन्द्व है। आचार्यश्री का आभामंडल इतना शक्तिशाली है कि उसके पास बैठकर कोई भी निर्द्वन्द्व हो सकता है। जैन धर्म के द्वन्द्व और निर्द्वन्द्व-इस उभयात्मक स्वरूप को समझने में इस पुस्तक का कुछ योग हो सकता है। इसमें प्रवेश का अधिकार है जैन धर्म के जिज्ञासु नए पाठक को और अधिकार है नए विद्वान को भी। मुनि दुलहराजजी प्रारम्भ से ही साहित्य संपादन के कार्य में लगे हए हैं। वे इस कार्य में दक्ष हैं। प्रस्तुत पुस्तक के संपादन में मुनि धनंजयकुमार ने निष्ठापूर्ण श्रम किया है। युवाचार्य महाप्रज्ञ २१ अप्रेल, ६३ गोठी भवन, सरदारशहर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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