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तो आपकी थी, आत्मा आपकी नहीं थी । देह तो बिलकुल आपकी थी, आत्मा महावीर की आपकी नहीं । और इसलिए एक रास्ता है। कम से कम देह के तल पर आप महावीर के साथ खड़े हैं। कम से कम देह के तल पर आप महावीर के साथी और मित्र हैं । और अगर देह के तल पर साथी और मित्र हैं, तो क्यों न आत्मा के तल पर मित्र होने की आकांक्षा पैदा हो ?
अगर बीज के तल पर हम समान हैं वृक्षों से... अगर एक वट वृक्ष के पास पड़ा हुआ एक वट का बीज यह सोचे कि मैं समान हूं इस वृक्ष से, क्योंकि यह वृक्ष भी बीज था और मैं भी बी हूं। अगर उसे यह पता चले कि इस विराट वृक्ष के भीतर भी वे ही तत्व विराजमान हैं जो मेरे भीतर विराजमान हैं, जो इसके भीतर जाग गया है वह मेरे भीतर सोया हुआ है, तो उस
के भीतर प्यास पैदा होगी। प्यास तब पैदा होगी, जब संभावना संभावित दिखाई पड़े ।
हमने सारे इन पुरुषों को लोकोत्तर बना कर बिठा दिया है, और तब हमारे भीतर प्यास क्षीण हो गई। हमने अपने हाथों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी है । हमने आदर और श्रद्धा में ऐसी बातें गढ़ ली हैं, जिनके कारण हम खुद अपने ही उन प्यारे लोगों से वंचित हो गए हैं, जो हमारे हृदय की धड़कन बनने चाहिए थे।
तो मैं आपको कहूं, महावीर को भगवान बाद में कहना, पहले महावीर को अपना मित्र, साथी, सहयोगी और पड़ोसी कहें। उन्हें निकट समझें, ताकि उस दूर तक उठना आपके लिए संभव हो जाए, जहां तक वे पहुंचते हैं।
ये तीन बात मैं आपसे कहना चाहता हूं। और इन तीन बातों के आधार पर ही संभव होगा कि कुछ महावीर के संबंध में कहूं, उसे आप समझ सकें।
पहली बात मैंने आपसे यह कही कि आपके जन्म से आपका धर्म तय नहीं होता, उसके लिए कुछ और करना होता है। अगर महावीर का जीवन देखें, अगर उनकी उत्कट आकांक्षा और अभीप्सा का जीवन देखें, अगर उनकी साधना और प्यास का जीवन देखें - तो महावीर क्या कर रहे हैं? महावीर क्या कर रहे हैं ? महावीर केवल एक उपाय कर रहे हैं, महावीर की पूरी साधना एक बात की है कि उनके भीतर वर्द्धमान की मृत्यु हो जाए, ताकि महावीर का जन्म हो सके। अगर धर्म जन्म से मिलता होता, तो महावीर को भी मिल गया होता। फिर बारह वर्षों की उत्कट तपश्चर्या में जाना नासमझी होती । फिर अपने जीवन को गलाना और बदलना पागलपन होता। फिर अपने रत्ती - रत्ती को जलाना और उस दुर्गम अकेली चढ़ाई को चढ़ना हम कैसे समझा पाते कि ठीक है?
लेकिन महावीर जानते हैं कि धर्म जन्म से उपलब्ध नहीं होता । धर्म संकल्प से उपलब्ध होता है। धर्म श्रम से उपलब्ध होता है - अपनी मेहनत से, अपने श्रम से । इसलिए महावीर की परंपरा श्रमण परंपरा कहलाई । श्रमण का अर्थ है : धर्म किसी भी भांति सिवाय श्रम के और उपलब्ध नहीं होता। उतना ही उपलब्ध होता है जितना हम श्रम करते हैं। उससे ज्यादा नहीं । कोई प्रसाद नहीं मिल सकता भगवान की तरफ से । कोई गुरु का आशीर्वाद कुछ नहीं कर सकता। किसी प्रार्थना, किसी स्तुति से धर्म नहीं पाया जा सकता।
यह बड़ी अदभुत बात थी । लेकिन हम ऐसे नासमझ हैं कि जिन महावीर ने यह कहा कि स्तुति से धर्म नहीं पाया जा सकता, प्रार्थना से धर्म नहीं पाया जा सकता, भगवान के प्रसाद से
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