Book Title: Mahabandho Part 4 Author(s): Bhutbali, Fulchandra Jain Shastri Publisher: Bharatiya GyanpithPage 14
________________ सम्पादकीय उदाहरण हैं। अब एक ऐसा पाठ उपस्थित किया जाता है जो किसी भी प्रति में उपलब्ध नहीं होता, पर प्रकरण और अर्थ की दृष्टि से सम्पादकों ने उसे स्वीकार करना आवश्यक माना है। ऐसे स्थल पर सब प्रतियों का पाठ नीचे टिप्पणी में दिखलाया गया है और प्रकरण संगत पाठ मूल में दिया गया है। इसके लिऐ धवला पुस्तक १०, पृष्ठ ३३२ की पाँचवीं टिप्पणी देखिए। यहाँ सब प्रतियों में 'मुवलंबणाकरणं' पाठ है, किन्तु इसके स्थान में सम्पादकों ने शुद्ध पाठ 'मवलंबणाकरणं' उपयुक्त समझ कर मूल में इसे स्वीकार किया है। 'धवला' में सर्वत्र अवलम्बनाकरण के लिए ओलंबणाकरण पाठ आता है। ये एक दो उदाहरण हैं। धवला के जितने भाग प्रकाशित हुए हैं, उन सब में इसी नीति से काम लिया गया है। 'सर्वार्थसिद्धि' में भी हमें इस नीति का अनुसरण करना पड़ा है। वहाँ हम किसी एक प्रति को आदर्श मानकर नहीं चल सके हैं। महाबन्ध-सम्पादन के समय भी हमारे सामने इसी प्रकार की कठिनाई रही है। स्थितबिन्ध के सम्पादन के समय हमारे सामने केवल एक ही प्रति रही है। इसलिए वहाँ अवश्य ही हमें अपने को संयत रखकर प्रति पर भरोसा करके चलना पड़ा है। बहुत ही कम ऐसे स्थल हैं जहाँ । ] ब्रैकेट में नये पाठ दिये गये हैं, किन्तु अनुभागबन्ध के १० फार्मों से आगे के सम्पादन के समय हमें ताम्रपत्र मुद्रित प्रति उपलब्ध हो जाने से विषय आदि की दृष्टि से विचार का क्षेत्र व्यापक हो जाने के कारण हमने इस बात की अधिक चेष्टा की है कि जहाँ तक बने, यह संस्करण शुद्ध रूप में सम्पादित करके प्रकाशन के लिए दिया जाय। और हमें यह सूचित करते हुए प्रसन्नता होती है कि इस कार्य में हमें बहुत अंश में सफलता भी मिली है। हमें इस कार्य में सहारनपुर निवासी श्रीयुत पं० रतनचन्दजी मुख्तार और श्रीयुत नेमिचन्द्रजी वकील का भी पूरा सहयोग मिल रहा है, क्योंकि इन दोनों बन्धुओं ने इन ग्रन्थों के काल आदि प्रकरणों का विशेष अभ्यास किया है। इन प्रकरणों की प्रक्रिया उनके ध्यान में बराबर बैठती जा रही है, इसलिए लिपिकार की असावधानी के कारण जहाँ भी अशुद्धि होती है उसे हमें व उन्हें प्रकृतियों आदि की परिगणना कर व स्वामित्व आदि प्रकरणों को देखकर समझने में देर नहीं लगती। अवश्य ही भागाभाग और अल्पबहुत्व आदि कुछ ऐसे प्रकरण हैं, जिनमें अशुद्धियों का परिमार्जन करना कठिन हो जाता है। ऐसी अवस्था में हम किसी एक प्रति को आदर्श मानकर चलने के प्रयास को प्रश्रय नहीं दे सके हैं। __ हमने पहले प्रस्तुत भाग के १० फार्मों की दोनों प्रतियों के आधार से तालिका दी है, उसे देखकर ही पाठक इस बात का अनुमान कर सकते हैं कि कई प्रतियों को सामने रखे बिना मूल पाठ की पूर्ति नहीं हो सकती है। उदाहरणार्थ, प्रस्तुत संस्करण के १ पृष्ठ पर भागाभाग के प्रसंग से आ० प्रति का 'अणता भागा' पाठ हमने मूल में स्वीकार किया है और ता० प्रति का 'अणंतभागो' पाठ नीचे टिप्पणी में दिखाया है, क्योंकि यहाँ आठों कर्मों के अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीव सब जीवों के कितने भाग प्रमाण हैं, इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है तथा पृष्ठ ८८ की पंक्ति नौ में आ० प्रति के पाठ के स्थान से मूल में ता. प्रति का पाठ स्वीकार करना पड़ा है। कारण कि यहाँ आयु के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवों का कितना क्षेत्र है, इस प्रश्न का समाधान किया गया है। किन्तु आ० प्रति में उत्कृष्ट का वाची पाठ छूटा हआ है, जिसकी पूर्ति 'ता०' प्रति के आधार से की गई है। इतना सब कछ होते हुए भी प्रस्तुत संस्करण में ऐसे सैकड़ों स्थल हैं जहाँ पाठ की कमी देखकर उनकी पूर्ति स्वामित्व आदि दूसरे प्रकरणों के आधार से करनी पड़ी है। ऐसे स्थलों पर वे पाठ [ ] ब्रैकेट में दिये गये हैं। इससे हम किसी एक प्रति को आदर्श मान कर नहीं चल सके हैं। हमारी समझ से जब किसी मौलिक ग्रन्थ का अनुवाद प्रस्तुत किया जाता है और ऐसा करते हुए किन्हीं बीजों के आधार से शुद्ध पाठ प्राप्त करना सम्भव होता है, तब अशुद्ध पाठों की परम्परा चलने देना उपयुक्त प्रतीत नहीं होता। इतना अवश्य है कि इस तरह जो भी पाठ प्रस्तुत किया जाय एक तो उसकी स्थिति स्वतन्त्र रहनी चाहिए और दूसरे जिन प्रतियों के आधार से सम्पादन कार्य हो रहा हो, उनके सम्बन्ध में भी पूरी जागरूकता से काम लिया जाय। हमने प्रस्तुत संस्करण में इसी नीति का अनुसरण किया है। मात्र ता० प्रति के अधिकतर जो पाठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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