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प्रथम परिच्छेद
इत्युक्त्वा पंचविधकुसुमबाणसहितं धनुः करतले महोत्वा तत्सङ्ग्रामार्थमगमत् ।
* ४ मोह कहने लगा-महाराज, कन्याके सौन्दर्य के सम्बन्ध में आप क्या पूछते हैं । वह सिद्धसेनकी कन्या है । मुक्ति सिद्धि) उसका नाम है और सौन्दर्यमें वह अनुपम है । प्रसका केश-पाश मयूरके गले के समान नील है, फूलोंके समान कोमल, सधन तथा कुटिल है । उसमें अनेक प्रकारके सुगन्धित कुसुम गुथे हुए हैं, जिनपर यमुनाजलको तरह काले भ्रमर गुनगुनाया करते हैं । उसका मुख सोलह कलाओंसे पूर्ण उदित चन्द्र जैसा है और भ्र लता इन्द्र के प्रचण्ड भुजदण्ड में स्थित टेड़े धनुषके समान है । उसके नेत्र विशाल हैं और वे विकसित एवं वायु-विकम्पित नील कमलोंसे स्पर्धा करते हैं । उसको नासिका कान्तिमान् है। सुवर्ण पौर मोतियोंके प्राभूषणसे भूषित है। तथा तिलक-वृक्ष के कुसुम के समान सुन्दर है । उसका अधर-बिम्ब अमृत-रस से परिपूर्ण है और मन्द तथा शुभ्र स्मितसे विलसित हो रहा है। उसका कण्ठ तीन रेखाम्रोसे मण्डित है और उसमें अनेक प्रकारके नीले, हरे मरिणयों तथा सुन्दर उज्ज्वल एवं गोल-गोल मोतियोंसे अलङ कृत हार पड़े हुए हैं। उसका शरीर चम्पाके अभिनव प्रसूनकी तरह स्वच्छ और तपाये गये सोनेकी कान्तिके समान गौर है। उसकी बाहु-लता नूतन शिरीष-मालाकी तरह मदुल है और मध्यभाग प्रथम योवनसे विकसित तथा कठोर स्तन-कलशके भारसे झुका हुआ और कृश है। उसकी नाभि, जघन, घुटने, चरण और चरण-प्रन्थियाँ लावण्य से निखर रही हैं । स्वामिन्द इसके सिवाय दया नामकी दूती इस बातके लिए कटिबद्ध है कि जिनराज और इस मुक्ति-कन्याका यथाशीघ्र विवाह हो जाय ।
मकरध्वज मोहके मुहसे मुक्ति-कन्याके इस अद्भ त लाग्यका वर्णन सुनकर विषय-व्याकुल हो गया। वह मोहसे कहने लगा-मोह,
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