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भूमिका
XXV धूर्त है। अत: उसे दिव्य नहीं कहा जा सकता। 'मध्यमस्तर का आचरण' यह अंश विवादग्रस्त है, क्योंकि यहाँ मित्रानन्द और कौमुदी के आचरण को उत्तम न कहना उनके साथ अन्याय होगा। यह स्वाभाविक है कि लक्षण-निर्माण करते समय जो आदर्श रहता है उसका पूर्णतः पालन लक्ष्य-निर्माण के समय प्राय: हो नहीं पाता। सम्भवत: यही कारण है कि इस प्रकरण में कवि रामचन्द्र उस आदर्श के पूर्णत: पालन में समर्थ न हो सके हों।
'दासश्रेष्ठिविटैर्युक्तम्' यह अंश भी इस प्रकरण में उपलब्ध है ही। इसकी वृत्ति में 'अमात्यस्थाने श्रेष्ठी'' जो कहा गया है उसका तात्पर्य यह है कि नाटक में वर्णित कञ्चकी, अमात्य एवं विदूषक के स्थान पर प्रकरण में क्रमश: दास, श्रेष्ठी एवं विट (धूर्त) की योजना करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त वणिक् आदि नायकों के
औचित्यानुसार अन्य चटुकारादि सहायकों की भी योजना की जा सकती है। प्रकृत प्रकरण में इस नियम का पूर्ण तो नहीं, किन्तु कुलपति-प्रभृति धूर्त (विट) पात्रों की योजना कर आंशिक अनुपालन अवश्य हुआ है।
'क्लेशाढ्यम्' यह अन्तिम अंश तो इस प्रकरण में सुलभ है ही। पोत के डूबने से लेकर सर्वत्र मित्रानन्द, कौमुदी, मैत्रेय आदि कष्ट का ही अनुभव करते हुए चित्रित किये गये हैं। यत्र-तत्र कुछ सुखद अवसर अवश्य आये हये हैं, किन्तु वे नगण्य हैं। हाँ, अन्त में सब का मिलन सुखद है, किन्तु यह तो निर्वहण सन्धि में अपेक्षित ही है।
इस प्रकार स्वोक्त प्रकरण-लक्षण का समन्वय होने से रूपकों में इस कौमुदीमित्रानन्द को प्रकरण कहना सर्वथा उचित है। पञ्चसन्धियों का विश्लेषण
मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श और निर्वहण- ये पाँच सन्धियाँ नाटकादि कुछ रूपकों में आवश्यक हैं। रामचन्द्र के अनुसार नाटक, नाटिका, प्रकरणी के साथ-साथ प्रकरण में भी उक्त पाँचों सन्धियाँ आवश्यक हैं- 'अवस्थानां च ध्रुवभावित्वात् सन्धयोऽपि नाटक-प्रकरण-नाटिका-प्रकरणीषु पञ्च अवश्यम्भाविनः।"२ .
अब हम देखेंगे कि इस प्रकरण में ये सन्धियाँ किस रूप में निबद्ध हैं। विशेष ध्यान योग्य यह है कि इस क्रम में हम नाट्यदर्पणोक्त लक्षण के आधार पर ही विवेचन करेंगे, क्योंकि नाट्यदर्पण रामचन्द्र की (गुणचन्द्र के साथ मिलकर लिखी गई)
१. ना०द० (वृत्ति), पृ० २०८। २. वहीं, पृ० ९४।
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