Book Title: Kaumudimitranandrupakam
Author(s): Ramchandrasuri, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 216
________________ १६३ नवमोऽङ्कः (प्रविश्य) प्रतीहार:- देव! सर्वदेशाचार-भाषा-वेषकुशलो बर्बरकूलवासी वणिज्यकारको द्वारि वर्त्तते। (प्रविश्य) श्वपाक:- अमच्च! एशे चिष्टामि। (अमात्य! एष तिष्ठामि।) चारायण:- अरे पिङ्गलक! सकुटुम्बमेनं नरदत्तं शूलमारोपय। , युवराजः- (प्रतीहारं प्रति) प्रवेशय वणिज्यकारकम्। ___ (प्रविश्य बर्बरो दूरस्थः प्रणमति।) युवराज:- वणिज्यकारक! केन प्रयोजनेन वेलन्धरमवतीर्णोऽसि? बर्बर:- भट्टा! पाणाहिंतो पि पियदले एगे मे भाया, शे लूशिय गिहादो नीशलिदे। (भर्तः! प्राणेभ्योऽपि प्रियतरः एको मे भ्राता, स रुष्ट्वा गृहान्निःसृतः।) (प्रवेश कर) प्रतीहार- देव! सभी देशों के आचार, भाषा और वेष में कुशल बर्बर नदी के तट पर रहने वाला व्यापारी द्वार पर खड़ा है। (प्रवेश कर) श्वपाक- अमात्य! मै आ गया हूँ। चारायण- अरे पिङ्गलक! नरदत्त को परिजनों सहित शूली पर चढ़ा दो। युवराज- (प्रतिहार से) व्यापारी को अन्दर ले आओ। (प्रवेश करके दूर से ही प्रणाम करता है।) । युवराज- व्यापारी! किस प्रयोजन से वेलन्धरनगर में आये हो? बर्बर- स्वामी! प्राणों से भी प्रिय मेरा एक भाई है, जो रूठ कर घर से भाग गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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