Book Title: Kaumudimitranandrupakam
Author(s): Ramchandrasuri, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 226
________________ दशमोऽङ्कः १७३ सिद्धाधिनाथ:- अद्य केनाप्यचिन्त्येन हेतुनाऽस्माकं मानसमपि प्रवर्द्धमानोत्साहम्। (पुनर्नन्दिघोषं प्रति) समादिश कामपरिचारकं ब्रह्मलयम्। यथावयमद्य निशीथे स्वयं बलिकर्म विधास्यामः। ततो भगवतः पञ्चबाणस्य पूजाविशेषः कोऽपि विपञ्चनीयः।। (नन्दिघोषो निष्क्रान्तः।) (प्रविश्य) क्षेमङ्करी- एदिणा तंतेण उवलिंपेदु पहारवणं सिद्धाहिवई। (एतेन तन्त्रेणोपलिम्पतु प्रहारव्रणं सिद्धाधिपतिः।) सिद्धाधिनाथ:- (तथा कृत्वा सविस्मयम्) कथं क्षणादेव सर्वथाऽप्यलक्ष्यः प्रहारव्रणः समजनि? (पुन: सविमर्शम्) कथमिदं तदेवाऽऽस्माकीनमौषधम्? (क्षेमङ्करी प्रति) सुमुखि! स त्वदीयो मान्त्रिकः किमपरमपि किमपि जानाति? क्षेमङ्करी- अवरं पि पियसंपओगं जाणादि। (अपरमपि प्रियसम्प्रयोगं जानाति।) सिद्धाधिनाथ:- कोऽप्यस्माकं व्यापादयितुं प्रियः, कोऽपि पूजयितुं, सिद्धाधिनाथ- आज किसी अज्ञात कारण से मेरे मन में उत्साह का सञ्चार हो रहा है। (पुन: नन्दिघोष से) कामपरिचारक ब्रह्मलय को आदेश दो कि आज रात मैं स्वयं बलिकर्म सम्पन्न करूँगा, अत: भगवान् कामदेव की विशेष पूजा की व्यवस्था की जाय। (नन्दिघोष निकल जाता है।) (प्रवेश कर) क्षेमङ्करी- आप प्रहार के व्रण (घाव) पर इस औषध का लेप लगावें। सिद्धाधिनाथ- (वैसा करके विस्मयपूर्वक) क्या क्षणभर में ही घाव पूरा गायब हो गया? (पुनः विचार करते हुए) कहीं यह मेरा वही खोया हुआ औषध तो नहीं? (क्षेमङ्करी से) सुमुखि! तुम्हारा वह मान्त्रिक कुछ और भी जानता है क्या? क्षेमकरी- हाँ, और भी प्रिय जादू जानता है। सिद्धाधिनाथ- कोई वध्य होने के कारण मेरा प्रिय है और कोई पूज्य होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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