Book Title: Kaumudimitranandrupakam
Author(s): Ramchandrasuri, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 243
________________ १९० कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् (ततः प्रविशति कुन्दलता मान्त्रिकश्च।) सर्वे- (विलोक्य) कथमयं मैत्रेयः? मोदामहे मनोरथानामप्यगम्येन प्रियजनसङ्कटनेन। पुरुषः- मैत्रेय! कथमत्र सम्प्राप्तोऽसि? मान्त्रिक:- रत्नाकरात् त्वया सह वियोजितो प्राम्यन् कुन्दलतामनुस्तवान्। सिद्धाधिनाथ:- किं ते कुन्दलता दृष्टचरी? मान्त्रिक:- वरुणद्वीपे दृष्टचरी। (पुनरौषधिवलयं सिद्धनाथस्योपनीय) स्वेनैवौषधिद्रवेण यूयमुपशान्तप्रहारवेदनाः सञ्जाताः। सिद्धाधिनाथ:- (पुरुषं प्रति) कुतस्ते कण्ठिकाया लाभ:? पुरुषः- पाशपाणिनेयं मह्यमुपनीता। मया च जातमरणनिश्चयेन स्मरप्रतिमापृष्ठस्थितेन युष्मत्कण्ठे विनिवेशिता। (तत्पश्चात् कुन्दलता और मान्त्रिक प्रवेश करते हैं।) सभी- (देखकर) क्या यह मैत्रेय है? इस कल्पना से परे (सर्वथा अविश्वसनीय) प्रियजनों के मिलन से हम सब अत्यन्त आनन्दित हैं। पुरुष- मैत्रेय! यहाँ कैसे आये हो? मान्त्रिक- रत्नाकरनगर में तुमसे बिछुड़ने के बाद भटकता हुआ मैं कुन्दलता के पीछे-पीछे चला। सिद्धाधिनाथ- क्या तुमको कुन्दलता पहले दिखी थी? मान्त्रिक- वरुणद्वीप में दिखी थी। (पुनः औषधिवलय को सिद्धनाथ के समीप ले जाकर) आपके अपने ही ओषधिद्रव से आपकी प्रहारवेदना शान्त हुई। सिद्धाधिनाथ- (पुरुष से) आपको यह माला कहाँ से मिली? पुरुष- यह मुझे पाशपाणि ने दी थी और अपनी मृत्यु निश्चित जानकर कामदेव की प्रतिमा के पीछे स्थित मैंने आपके गले में पहना दी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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