Book Title: Kaumudimitranandrupakam
Author(s): Ramchandrasuri, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 241
________________ १८८ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् पुरुष:- कथमेष मकरन्दः? (इति सरभसमुत्थाय परिरभते।) सिद्धाधिनाथ:- (पुरुषं प्रति) कोऽयं पथिकः? पुरुष:- अस्मन्मित्रं सुमित्रायाः पतिरयम्। ___(तापसी विलोक्य सरोमाञ्चमधोमुखी भवति।) सिद्धाधिनाथ:- (पथिकं प्रति) किमर्थमत्रागमनं भवतः? पथिक:- विज्ञातवरुणद्वीपवृत्तान्तोऽहं मित्रानन्दव्यसनं विज्ञपयितुं युष्माकमुपस्थितोऽस्मि। सिद्धाधिनाथ:- (सपश्चात्तापं पुरुषं प्रति) युष्माभिरेवाहमुपकृत्य स्वयमात्मव्यसने पातितः। क्रूरः कृतोपकारः प्रत्यपकाराय कल्पते भूयः। विरचितपाशविनाशः प्रणिहन्ति विपाशकं सिंहः।।१६।। पुरुष:- सिद्धाधिनाथ! मा स्म विषीदः। यदि व्यसनमिदं न भवेत् तदानीं कथमहं सन्निहितमित्र-कलत्रः स्याम्। पुरुष- क्या यह मकरन्द है? (यह कहकर अत्यन्त शीघ्रता से उठकर आलिङ्गन करता है।) सिद्धाधिनाथ- (पुरुष से) कौन है यह पथिक? पुरुष- यह मेरा मित्र और सुमित्रा का पति मकरन्द है। (तापसी देखकर रोमाञ्चित हो मुख नीचे कर लेती है।) सिद्धाधिनाथ- (पथिक से) यहाँ क्यों आये हो? । पथिक- वरुणद्वीप का वृत्तान्त जानकर मित्रानन्द के ऊपर आये सङ्कट की सूचना आपको देने मैं यहाँ आया हूँ। सिद्धाधिनाथ- (पश्चात्तापसहित पुरुष से) आप लोगों से ही उपकृत होकर मैंने आप लोगों को स्वयं अपने ही पापजाल में फंसा दिया। क्रूर व्यक्ति किसी के द्वारा उपकृत होने पर भी पुनः पुनः उस उपकारक के अपकार की ही चेष्टा करता है, जिस प्रकार किसी के द्वारा जाल से मुक्त किया गया सिंह उस जाल से छुड़ाने वाले को ही मार डालता है।।१६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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