Book Title: Kaumudimitranandrupakam
Author(s): Ramchandrasuri, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 240
________________ दशमोऽङ्कः १८७ पुरुषः- कथमेषा सुमित्रा मकरन्दपत्नी? (पुनः सिद्धं प्रति) इयं मे मित्रस्य पत्नी सुमित्रा। सिद्धाधिनाथ:- (सलज्जम्) केयमपराधपरम्परा? (पुन: पुरुषं प्रति) एते द्वे अपि मर्यवापहत्य विहितरूपान्तरे लम्बस्तनीवेश्मनि परस्परवानिभिज्ञे विहितनामान्तरे कालमियन्तं विधते। (पुनर्विमृश्य) पतिरस्याः क्व वर्तते? पुरुषः- यदाऽहं वेलन्धरनगरात् स्वनगरं प्रति प्रतिष्ठमानो युष्पद्विद्याधरैरपहतस्तदा पतिरस्याः क्वचिदपि पलाय्य गतवान्। (प्रविश्य) प्रतीहार:- एकः पथिको देवपादान् द्रष्टुमभिलषति। सिद्धाधिनाथ:- शीघ्रं प्रवेशय। (प्रतीहारो निष्क्रान्तः।) (प्रविश्य पथिक: प्रणमति।) पुरुष- क्या यह मकरन्द की पत्नी सुमित्रा है? (पुन: सिद्ध से) यह मेरे मित्र की पत्नी सुमित्रा है। सिद्धाधिनाथ- (लज्जासहित) यह कैसी अपराधपरम्परा है? (पुन: पुरुष से) ये दोनों स्त्रियाँ भी मेरे द्वारा ही अपहत होकर वेश और नाम बदलकर एक दूसरे से अलग लम्बस्तनी के भवन में इतने समय तक रखी गयीं। (पुनः सोचकर) इसका पति कहाँ है? पुरुष- जब मैं वेलन्धरनगर से अपने नगर लौटते समय आपके विद्याधरों द्वारा पकड़ा गया, तभी इसका पति भागकर कहीं चला गया। (प्रवेश कर) प्रतीहार- एक पथिक आपके दर्शन करना चाहता है। सिद्धाधिनाथ– शीघ्र अन्दर ले आओ। (प्रतीहार निकल जाता है।) (पथिक प्रवेश करके प्रणाम करता है।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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