________________
दशमोऽङ्कः
१८९. अपकारं कुर्वाणैरुपकारः कोऽपि शक्यते कर्तुम् । सन्ताप्य फलसमृद्धाः करोति धान्यौषधीस्तपनः।।१७।।
(सिद्धाधिनाथ: सलज्जमधोमुखो भवति।) पुरुष:- सिद्धनाथ! प्रियसम्पर्को वृथा मे मैत्रेयं विना।
सिद्धाधिनाथ:- (पञ्चभैरवं प्रति) ब्रूहि मान्त्रिकम्। यथा प्रियः सर्वोऽपि साटितः परमेकोऽवशिष्यते तदर्थं प्रयतस्व।
(नेपथ्ये) प्रभातप्राया रजनिः। इदानीमनवसरो मन्त्रस्य।
सिद्धाधिनाथ:- (आकर्ण्य) पञ्चभैरव! तर्हि ब्रूहि कुन्दलतां यथा मान्त्रिकमस्माकं दर्शय।
(पञ्चभैरवो निष्क्रान्तः।)
पुरुष- सिद्धाधिनाथ! आप दुःखी न हों। यदि यह विपत्ति नहीं आती तो कैसे हम अपने मित्र और भार्या से मिल पाते।
अपकार करने वाले भी (कभी-कभी) कोई उपकार कर सकते हैं। यथा सूर्य धान्य और ओषधियों को पहले अपनी गर्मी से सन्तप्त करके ही पुनः फल से समृद्ध (परिपूर्ण) करता है।।१७।।
(सिद्धाधिनाथ लज्जा से मुख नीचे झुका लेता है।) पुरुष- सिद्धाधिनाथ! मैत्रेय के विना हमारा प्रियमिलन व्यर्थ है।
सिद्धाधिनाथ- (पञ्चभैरव से) मान्त्रिक से कहो कि अन्य सभी प्रियजन तो मिल गये, किन्तु एक बच गया है। उसको मिलवाने का प्रयत्न करे।
(नेपथ्य में) रात लगभग बीत ही गयी है, अत: अब मन्त्रप्रयोग का अवसर नहीं है।
सिद्धाधिनाथ- (सुनकर) पञ्चभैरव! तो कुन्दलता से कहो कि मान्त्रिक को मुझसे मिलवाये।
(पञ्चभैरव निकल जाता है।)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org