Book Title: Kaumudimitranandrupakam
Author(s): Ramchandrasuri, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 237
________________ १८४ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् (नेपथ्ये) एष प्रत्यासन्नः। सिद्धाधिनाथ:- किं जीवितदायिनः सम्पर्कः प्रत्यासन्नः? (नेपथ्ये) एष प्रत्यासन्नः कालो निशीथस्य। तदारभ्यतां बलिकर्म। (ततः प्रविशति यावकरसोपलिप्तसर्वाङ्गः करवीरदामालङ्कृतकण्ठपीठो निवसितकुसुम्भवसनः पुरुषः।) सिद्धाधिनाथ:- (अपवार्य) लम्बस्तनि! तथा त्वयाऽयमुपलिप्तो यथा सर्वथा नोपलक्ष्यते। क्रूरकर्मणि पटीयसी खल्वसि। (पुरुषः पञ्चबाणं प्रणम्य प्रदक्षिणीकृत्य च होमकुण्डसविधमुपविशति।) लम्बस्तनी- वत्से! करेहि भयवदो कुंडाणलस्स उवहारपुरिसस्स य पूर्य। - (वस्ते ! कुरु भगवतः कुण्डानलस्योपहारपुरुषस्य च पूजाम् ।) (नेपथ्य में) यह सन्निकट है। सिद्धाधिनाथ- क्या जीवनदाता से सम्पर्क सन्निकट है? (नेपथ्य में) रात होने ही वाली है, अत: बलिकर्म आरम्भ करें। (तत्पश्चात् सर्वाङ्गमे महावर का लेप लगाया हुआ, गले में कनेर पुष्प की माला पहना हुआ गेरुआ वस्त्रधारी पुरुष प्रवेश करता है।) सिद्धाधिनाथ- (दूसरी तरफ मुँह घुमाकर) लम्बस्तनि! तुमने तो इसको ऐसा रङ्ग दिया है कि यह बिल्कुल दीख ही नहीं रहा है। तुम क्रूरकर्म में निश्चय ही दक्ष हो। (पुरुष कामदेव को प्रणाम कर और प्रदक्षिणा कर हवनकुण्ड के पास बैठ जाता है।) लम्बस्तनी- पुत्रि! हवनकुण्ड के अग्नि और बलिपुरुष की पूजा करो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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