Book Title: Kaumudimitranandrupakam
Author(s): Ramchandrasuri, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 236
________________ दशमोऽङ्कः किमिदम् ?, कैतवमपि सत्यतामगात् । लम्बस्तनी - अहं पि विम्हिदा चिट्ठामि । ( अहमपि विस्मिता तिष्ठामि।) आत्रेयी — (सात्त्विकभावानभिनीय सरभसम्) एसो सो च्चेअ मे पई । (पुन: सरभसम्) अज्जउत्त! चिरा दिट्ठो सि । १८३ (एष स एव मम पतिः । आर्यपुत्र ! चिराद् दृष्टोऽसि । ) लम्बस्तनी - वत्से! निरूविदो तए भयवदो पहावो?, ता इयाणिं उवविसिय देहि पुरिसोवहारं । ( वत्से ! निरूपितस्त्वया भगवतः प्रभावः ?, तदिदानीमुपविश्य देहि पुरुषोपहारम् 1) सिद्धाधिनाथ:— (दक्षिणाक्षिस्फुरणमभिनीय सरभसम्) भगवन् कुसुमचाप ! अमन्दं स्पन्दमानस्य दक्षिणस्यास्य चक्षुषः । फलं प्रयच्छ सम्पर्कं तेन जीवितदायिना । । १४ । । है ? (पुन: दूसरी तरफ मुँह घुमाकर ) लम्बस्तनि! यह क्या? कपटलीला भी सत्य हो गयी ? लम्बस्तनी - मै भी अचम्भित हो गयी हूँ । आत्रेयी - (सात्त्विक भावों का अभिनय करके शीघ्रता से यही है मेरा पति । ( पुनः शीघ्रतापूर्वक) आर्यपुत्र! बहुत समय बाद दिखे हो । लम्बस्तनी - पुत्रि ! तुमने देख लिया न भगवान् कामदेव का प्रभाव ? तो अब बैठकर पुरुषबलि प्रदान करो । सिद्धाधिनाथ— (दायीं आँख के फड़कने का अभिनय करके शीघ्रतापूर्वक) भगवन् कामदेव ! Jain Education International उस जीवनदाता (मित्रानन्द) से मिलवाकर इस दाहिनी आँख के (शुभसूचक) तीव्र गति से फड़कने का फल प्रदान करें । । १४ । । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254