Book Title: Kaumudimitranandrupakam
Author(s): Ramchandrasuri, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 227
________________ १७४ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् तदुभयस्यापि संयोगमाधातुमूर्जस्वलः? क्षेमङ्करी- अध इं? (अथ किम् ?) सिद्धाधिनाथ:- (सौत्सुक्यम्) समादिश कुन्दलताम्। यथा-निकषा कामायतनं स्वयं सन्निहिता विधापय मान्त्रिकेण प्रियजनसाटनार्थ मन्त्रोपचारम्। (क्षेमङ्करी निष्क्रान्ता।) (प्रविश्य कटितटं नर्तयन्ती लम्बस्तनी प्रणमति।) सिद्धाधिनाथ:- (ससंरम्भम्) लम्बस्तनि! इदमासनमास्यताम्। (पुनः सौत्सुक्यम्) अस्मन्मनोरथानुरूपं किमप्याचरत्यात्रेयी? लम्बस्तनी- (सोद्वेगम्) न किं पि। (न किमपि।) सिद्धाधिनाथ:- हा हताः स्मः (पुन: सविषादम्) लम्बस्तनि! स एष प्रैवेयकप्रवासप्रसादो यदस्माकमपि दौर्भाग्यम्। (पुनः सोपहासम्) सूत्रधारी होने के कारण और मैं उन दोनों का संयोग प्राप्त कर पाने में समर्थ हूँ? क्षेमकरी- और क्या? सिद्धाधिनाथ- (उत्सुकतापूर्वक) कुन्दलता को आदेश दो कि काम-मन्दिर के पास स्वयं उपस्थित रह कर मान्त्रिक से प्रियजनों को मिलवाने हेतु मन्त्रप्रयोग करवाये। (क्षेमङ्करी निकल जाती है।) (प्रवेश करके कमर लचका कर नृत्य करती हुई लम्बस्तनी प्रणाम करती है।) सिद्धाधिनाथ- (शीघ्रतापूर्वक) लम्बस्तनि! इस आसन पर बैठो। (पुनः उत्सुकतापूर्वक) क्या आत्रेयी हमारे मनोरथ के अनुकूल कुछ व्यवहार प्रदर्शित कर रही है ? लम्बस्तनी- (क्षोभ सहित) कुछ भी नहीं। सिद्धाधिनाथ- हाय! मारे गये! (पुनः दुःखपूर्वक) लम्बस्तनि! यह उस कण्ठहार के अभाव के कारण ही हो रहा है जो हमारे लिए बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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