Book Title: Kaumudimitranandrupakam
Author(s): Ramchandrasuri, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 233
________________ १८० कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् वक्त्राम्भोजमुदस्य पश्य सुदति! स्वर्भूर्भुवश्चक्षुषां साफल्यैकनिबन्धनं भगवतश्चेतोभुवो मन्दिरम्।।१०।। (आत्रेयी सव्रीडं तूष्णीमास्ते।) सिद्धाधिनाथ:--- (सोत्कण्ठम्) वक्त्रं विलक्ष्म, सततोदयदर्पिते च नेत्रे, शठेन सृजता मदिरेक्षणायाः। धात्रा कलङ्क-विनिमीलनपांसुराणां, किं नाम नापकृतमिन्दु-सरोरुहाणाम्?।।११।। (पुनरपवार्य) लम्बस्तनि! सर्वमपि कामकर्तव्यं शिक्षितस्त्वया वध्यः? लम्बस्तनी- अध इं? (अथ किम् ?) सिद्धाधिनाथ:- (आत्रेयी प्रति) भद्रे! स्वयं सन्निहिते भगवति पञ्चबाणे तीनों लोकों (के प्राणियों के चित्त) को आह्लादित करने वाली चन्द्रिकास्वरूपिणि सुदति (कौमुदी)! अपना मुखकमल उठाकर पृथ्वी, अन्तरिक्ष और स्वर्ग- इन तीनो लोकों के प्राणियों की दृष्टि की सफलता के एकमात्र आधार (कसौटी) भगवान् कामदेव के मन्दिर को देखो।।१०।। (आत्रेयी लज्जा से चुप रहती है।) सिद्धाधिनाथ- (उत्कण्ठापूर्वक) । इस मदिरेक्षणा के निष्कलङ्क मुख और सतत विकास के कारण दर्पयुक्त नेत्रों की रचना करने वाले धर्त विधाता ने क्रमश: कलङ्क और निमीलन (मुरझाना) रूप दोषों से युक्त चन्द्रमा और कमलों का अपकार नहीं किया क्या? ।।११।।। (पुनः दूसरी तरफ मुँह घुमाकर) लम्बस्तनि! क्या तुमने वध्यपुरुष को कामपूजन की सभी विधियों की शिक्षा दे दी? लम्बस्तनी- और क्या? सिद्धाधिनाथ- (आत्रेयी से) भद्रे! स्वयं भगवान् कामदेव के समीप रहते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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