Book Title: Kaumudimitranandrupakam
Author(s): Ramchandrasuri, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 215
________________ १६२ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् (प्रविश्य) चेटी- भट्टा! दिट्ठिया दिट्ठिया। (भर्तः ! दिष्ट्या दिष्ट्या।) युवराज:- (सरभसम्) केरलिके! त्वरिततरमानन्दस्य निदानं विज्ञपय। चेटी- रयणस्स पभावेण भट्टिणी व गयशूलवेअणा संजादा। (रत्नस्य प्रभावेन भट्टिनी व्यपगतशूलवेदना सञ्जाता।) युवराज:- (सक्रोधम्) अमात्य! कैतवप्रयोगैर्देशान्तरिणां धनमपहृत्यास्माकमकीर्तिमुत्पादयतो नरदत्तस्य को दण्डः? चारायणः- (सकम्पम्) यं देवः समादिशति। युवराज:- तर्हि श्वपाकमाकार्य सकुटुम्बमेनं नरदत्तमस्माकं पश्यतां शूलमारोपय। (नरदत्त: कम्पते।) चारायण:- (उच्चैःस्वरम्) भो अस्मत्परिजनाः! सशूलं श्वपाकमाकारयत। (प्रवेश कर) चेटी- स्वामी! अहो भाग्य, अहो भाग्य? युवराज- (उत्कण्ठापूर्वक) केरलिके! शीघ्र आनन्द का कारण बतलावो। चेटी— रत्न के प्रभाव से युवराज्ञी की वेदना समाप्त हो गयी। युवराज-(क्रोधपूर्वक) अमात्य! छल-कपट से परदेशियों का धन अपहत कर हमारा अपशय फैलाने वाले नरदत्त को क्या दण्ड दिया जाय? चारायण- (काँपते हुए) जिस दण्ड की आप आज्ञा दें। युवराज- तो चाण्डाल को बुलाकर परिजमसहित नरदत्त को मेरे सामने शूली पर लटका दो। (नरदत्त काँपता है।) चारायण- (उच्च स्वर में) अरे हमारे सेवकों! चाण्डाल को शूली सहित बुलाओ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254