Book Title: Kaumudimitranandrupakam
Author(s): Ramchandrasuri, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 214
________________ १६१ नवमोऽङ्कः मकरन्द:- देव! निःसन्देहमभिहिते भवन्ति मदीयानि रत्नानि? युवराज:- अवश्यं भवन्ति। मकरन्द:- देव ! रत्नमिदं स्पर्शमात्रेण शूलमपनयति। यदि चायमों विसंवदति तदा शिरश्छेदेन दण्डः। (प्रविश्य सम्भ्रान्तः) कञ्चुकी देवी कण्ठगतप्राणा शूलवेदनयाऽधुना। अतः परं विधेयं तु युवराजोऽवगच्छति।।९।। युवराज:- कञ्चुकिन्! रत्नमिदमुपनय देव्याः, येन समूलं शूलं प्रणश्यति। (कञ्चकी रत्नमादाय निष्क्रान्तः।) (नरदत्तः सभयमपवार्य उपायनभाजनवाहिन: कर्णे-एवमेव।) (उपायनभाजनवाही निष्क्रान्तः।) मकरन्द- देव! क्या असन्दिग्ध रूप से बतला देने पर रत्न मेरे हो जायेंगे? युवराज- अवश्य हो जायेंगे। मकरन्द-देव! यह रत्न स्पर्शमात्र से पीड़ा दूर कर देता है और यदि यह सत्य न हो तो दण्डस्वरूप में मेरा सिर काट लिया जाय। __ (प्रवेश करके घबड़ाया हुआ) कञ्चकी- तीव्र पीड़ा से देवी के प्राण कण्ठ को आ गये हैं अर्थात् वियुक्त होने वाले हैं। अब आगे क्या करना है, यह तो युवराज ही समझ सकते हैं।।९।। युवराज- कञ्चकिन्! यह रत्न देवी के पास ले जाओ। इससे पीड़ा समूल नष्ट हो जाती है। (कञ्चकी रत्न लेकर निकल जाता है।) (नरदत्त भयपूर्वक दूसरी तरफ मुँह घुमाकर उपहारपात्र लाने वाले के कान में- ऐसा ही करो।) (उपहारपात्र लाने वाला निकल जाता है।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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