Book Title: Kaumudimitranandrupakam
Author(s): Ramchandrasuri, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 212
________________ १५९ नवमोऽङ्कः वणिज:- (सभयम्) देव ! नरदत्तस्यायं भ्राता मकरन्दाभिधानः। (युवराजः साटोपं मकरन्दमवलोकयति।) मकरन्द:- (सदुःखमात्मगतम्) प्रत्यहं नव्यनव्याभिर्भवन्तीभिर्विपत्तिभिः। आस्तां नाम परस्तावदात्माऽपि मम भग्नवान्।।८।। (प्रकाशम्) देव! अपरमप्यभिज्ञानमस्ति-इला मे गोत्रदेवता, तदभिधानेनापरमिलादत्त इत्यपि नाम। ततः कियन्त्यपि सम्पुटानीलादत्तनामाङ्कितानि, ततस्तान्यपि विलोकयतु देवः। युवराजः- (तथा कृत्वा) कथमेतानि इलादत्तनामाङ्कितानि? (पुनः सरोष नरदत्तं प्रति) अतः परमपि विज्ञप्यमवशिष्यते किमपि? नरदत्तः- (सावष्टम्भम्) अवशिष्यते। युवराजः- (विहस्य) त्वरिततरं विज्ञपय। व्यापारीगण- (भयपूर्वक) देव! यह नरदत्त का मकरन्द नामक भाई है। (युवराज क्रोधपूर्वक मकरन्द को देखता है।) मकरन्द- (दुःखपूर्वक मन में) प्रतिदिन उपस्थित होती हई नई-नई विपत्तियों से मेरे शरीर का तो कहना ही क्या? मेरा हृदय भी खण्डित हो गया है।।८।। ___ (प्रकटरूप में) देव! एक अन्य पहचान भी है- इला मेरी कुलदेवता हैं और उन्हीं के नाम से मेरा दूसरा नाम इलादत्त भी है। अत: कुछ पेटियों पर इलादत्त भी लिखा हुआ है, आप उन पेटियों को भी देखें। युवराज-(वैसा करके) क्या इन पर इलादत्त नाम लिखा हुआ है? (पुनः रोषसहित नरदत्त से) इसके बाद भी कुछ कहना बाकी है क्या? नरदत्त- (दृढ़तापूर्वक) बाकी है। युवराज– (हँस कर) शीघ्र कहो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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