Book Title: Kaumudimitranandrupakam
Author(s): Ramchandrasuri, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 217
________________ १६४ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् युवराज:- ततः किम्? बर्बर:- शे दाणिं वेलंधरे पविष्टे चिष्टदि। (स इदानीं वेलन्धरे प्रविष्टः तिष्ठति।) युवराजः-(मकरन्दमुद्दिश्य) एकस्तावदयं वैदेशिको वेलन्धरे प्रविष्टोऽस्ति। बर्बर:- हा भाय! चिला दिष्टो सि। (हा भ्रातः! चिराद् दृष्टोऽसि।) (इत्यभिदधानो मकरन्दं परिरभ्य तारस्वरं प्रलपति) युवराज:-(ससम्भ्रमम्) कथमयं मकरन्दोम्लेच्छजाति:? दुरात्मनाऽमुना म्लेच्छेन नरदत्तस्य वेश्मनि भोजन-शयनाभ्यां वर्णसङ्करः कृतः। मकरन्द:- (स्वगतम्)शूलवेदनापहारेण मयि पक्षपात्यपि कुमारस्तेनामुनोपलिङ्गान्तरेण प्रतिपक्षतां यास्यति। विरलविपदां कथञ्चिद् विपदो हर्तुं समीहते लोकः। प्रतिपदनवविपदां पुनरुपैति माताऽपि निर्वेदम्।।१०।। - युवराज- उससे क्या ? बर्बर- वह इस समय वेलन्धर में ही है। युवराज- (मकरन्द की ओर सङ्केत करके) एक तो यही विदेशी है, जो वेलन्धर में प्रविष्ट हुआ है। बर्बर- हाय भाई! बहुत समय बाद दिखे हो। (यह कहता हुआ मकरन्द को गले लगाकर जोर से रोता है। युवराज- (घबराहट के साथ) क्या यह मकरन्द म्लेच्छ जाति का है? इस दुष्ट ने नरदत्त के घर में भोजन और शयन कर हमको वर्णसङ्कर बना दिया। मकरन्द- (मन ही मन) युवराज्ञी की पीड़ा को दूर करने के कारण मेरे पक्षपाती भी युवराज इस अपशकुन से मेरे विरुद्ध हो जायेंगे। यदा-कदा विपत्ति में पड़ने वाले लोगों की विपत्तियों को तो लोग किसी प्रकार दूर भी कर सकते हैं, किन्तु जिन पर प्रतिक्षण नई-नई विपत्तियाँ आती रहती हैं, उनके प्रति तो माता भी विरक्त (ममत्वहीन) हो जाती है।।१०।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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