Book Title: Kaumudimitranandrupakam
Author(s): Ramchandrasuri, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 218
________________ नवमोऽङ्कः तदतः परं कृतमुपायान्तरविमर्शनेन । यद् भाव्यं तद् भवतु । युवराज : - ( प्रतीहारं प्रति) उपनय दुरात्मानमेनं श्वपाकाय । ( प्रतीहारो मकरन्दं केशैराकृष्य श्वपाकायोपनयति । ) (नेपथ्ये) अलमलं क्रूरेण कर्मणा । युवराज:प्रतिरुणद्धि ? (सक्रोधम्) अरे ! कोऽयं कृतान्तवदनं स्पृहयालुरस्मदाज्ञां प्रतीहारः - देव! व्याघ्रमुखीपतिर्वज्रवर्मा युष्मदाज्ञां प्रतिरुणद्धि । युवराजः - (सदर्पम्) अस्मदाज्ञां प्रतिरोद्धुं शक्तिरस्ति पदातिपांशोर्वज्रवर्मणः ? (पुनः श्वपाकं प्रति) आरोपय शूलमेतं दुरात्मानम् । ( श्वपाको मकरन्दमुत्क्षिपति । ) अतः अब कोई अन्य उपाय सोचना व्यर्थ है । जो होना है वह हो । युवराज - ( प्रतीहार से) इस दुष्ट को श्वपाक के पास ले जाओ । (प्रतिहार मकरन्द का केश पकड़ कर उसको श्वपाक के पास ले जाता है | ) (नेपथ्य में) १६५ ऐसा क्रूर कर्म न करें । युवराज — (क्रोधपूर्वक) अरे! अपनी गर्दन कटवाने का इच्छुक यह कौन मेरी आज्ञा का विरोध कर रहा है? प्रतीहार- देव ! व्याघ्रमुखी के मुखिया वज्रवर्मा आपकी आज्ञा का विरोध कर रहे हैं। Jain Education International युवराज — (अहङ्कारपूर्वक ) मेरी आज्ञा का विरोध करने की शक्ति है पैर की धूल के बराबर वज्रवर्मा में? (पुनः श्वपाक से ) इस दुष्ट को शूली पर लटका दो। (चाण्डाल मकरन्द को शूली पर चढ़ाने के लिए उठाता है ।) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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