Book Title: Kaumudimitranandrupakam
Author(s): Ramchandrasuri, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 220
________________ नवमोऽङ्कः १६७ युवराज:- (सपश्चात्तापम्) अमर्ष-मात्सर्य-विमोह-कैतवै__रसून् हरन्तो नयशालिनामपि। शुभेषु वृत्तिं दधतोऽपि केषुचित् पतन्त्यगाधे तमसि क्षितीश्वराः।।११।। (पुनरमात्यं प्रति) आरोपय सबर्बरं नरदत्तं शूलम्। इह समानय कृतस्नानं मकरन्दम्। भवत्वस्माकं दुर्नयस्य प्रायश्चित्तम्। वज्रवर्मा- मित्रानन्दसम्पर्कपर्वणि न समुचितः प्राणिवधः। मित्रानन्दः- कुमार! सर्वस्याप्यपराधस्यास्मदागमनमेव दण्डः। युवराजः- (सविनयम्) एतद् दिनं सुदिनमेष विशेषकश्च द्वीपः क्षितेः पुरमिदं च पुरां पताकम्। यस्मिन् पवित्रमनसो यशसो निशान्तं युष्मादृशाः पथि भवन्ति दृशां शरण्याः।।१२।। युवराज- (पश्चात्तापसहित) वे राजा घोर नरक में गिर जाते हैं जो असहिष्णुता, विद्वेष, अज्ञान और छल के कारण नीतिमार्गानुसारी और सत्कर्म करने वाले लोगों का भी वध कर देते हैं।।११।। __(पुनः अमात्य से) नरदत्त को बर्बरसहित शूली पर लटका दो। स्नान किये हुए मकरन्द को यहाँ ले आओ। हमारे दुर्व्यवहार का प्रायश्चित्त हो जाये। वज्रवर्मा- मित्रानन्द से मिलन के शुभ अवसर पर प्राणिवध उचित नहीं। मित्रानन्द- युवराज! हमारा आगमन ही सभी अपराधों का दण्ड है। युवराज- (विनयपूर्वक) आज का दिन शुभ है, यह द्वीप भी श्रेष्ठ है और यह रङ्गशाला नगरी भी सभी नगरियों में उत्कृष्ट है जिसमें आप जैसे स्वच्छ अन्तःकरण वाले महापुरुष अहर्निश यशोमार्ग पर ही चलने की प्रेरणा देते रहते हैं।।१२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254