Book Title: Kaumudimitranandrupakam
Author(s): Ramchandrasuri, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 210
________________ १५७ नवमोऽङ्कः (प्रविश्य सुवर्णकार: सम्पुटान्युपनयति।) युवराजः-(सर्वतोऽवलोक्य) कथं न कुत्राप्यभिधानम्? । (पुनः साक्षेपम्) अरे ! कोऽयमसत्यालापः? मकरन्द:- द्वेधा विधाप्य सम्पुटानि मध्यमवलोकयतु देवः। युवराज:- (तथा कृत्वा मध्यमवलोक्य च सविस्मयम्) कथमुभयतोऽपि सम्पुटेषु मकरन्दाभिधानम्? (पुन: साक्षेपममात्यं प्रति) क्रमागतस्य नरदत्तस्यायमीदृशो युष्माकं सत्यप्रत्ययः? नरदत्त:- (सविनयम्) देव! विज्ञपनीयमस्ति। युवराजः- (साक्षेपम्) अतः परमपि किमपि विज्ञपनीयमस्ति? भवतु, विज्ञपय। नरदत्त:- देव! बाल्ये हि मे पिता विपन्नः। इदानीमहमनुजश्चायं द्वावेव कुटुम्बे पुरुषौ। युवराज:- ततः किम्? (स्वर्णकार प्रवेश करके पेटियों को समीप ले आता है।) युवराज- (सब तरफ देखकर) क्या कहीं भी नाम नहीं लिखा है? (पुनः क्रोधपूर्वक) अरे! क्यों असत्य बोल रहे हो? मकरन्द- आप पेटियों को दो भाग में करके (खोलकर) उनके भीतर देखें। युवराज- (वैसा करके और बीच में देखकर आश्चर्यपूर्वक) क्या पेटियों पर दोनों तरफ मकरन्द का नाम लिखा है? (पुनः क्रोधपूर्वक अमात्य से) खानदानी नरदत्त पर आपको इतना अधिक विश्वास क्यों? नरदत्त- (विनयपूर्वक) देव! कुछ कहना चाहता हूँ। युवराज- (क्रोधपूर्वक) अब भी कुछ कहने को बचा है? अच्छा, कहो। नरदत्त- देव! बाल्यकाल में ही मेरे पिता की मृत्यु हो गयी। इस समय परिवार में मैं और मेरा अनुज ये दो ही पुरुष हैं। युवराज- उससे क्या ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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