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कौमुदीमित्रानन्दरूपकम्
(प्रविश्य) चेटी- भट्टा! दिट्ठिया दिट्ठिया। (भर्तः ! दिष्ट्या दिष्ट्या।) युवराज:- (सरभसम्) केरलिके! त्वरिततरमानन्दस्य निदानं विज्ञपय। चेटी- रयणस्स पभावेण भट्टिणी व गयशूलवेअणा संजादा। (रत्नस्य प्रभावेन भट्टिनी व्यपगतशूलवेदना सञ्जाता।)
युवराज:- (सक्रोधम्) अमात्य! कैतवप्रयोगैर्देशान्तरिणां धनमपहृत्यास्माकमकीर्तिमुत्पादयतो नरदत्तस्य को दण्डः?
चारायणः- (सकम्पम्) यं देवः समादिशति।
युवराज:- तर्हि श्वपाकमाकार्य सकुटुम्बमेनं नरदत्तमस्माकं पश्यतां शूलमारोपय।
(नरदत्त: कम्पते।) चारायण:- (उच्चैःस्वरम्) भो अस्मत्परिजनाः! सशूलं श्वपाकमाकारयत।
(प्रवेश कर) चेटी- स्वामी! अहो भाग्य, अहो भाग्य? युवराज- (उत्कण्ठापूर्वक) केरलिके! शीघ्र आनन्द का कारण बतलावो। चेटी— रत्न के प्रभाव से युवराज्ञी की वेदना समाप्त हो गयी।
युवराज-(क्रोधपूर्वक) अमात्य! छल-कपट से परदेशियों का धन अपहत कर हमारा अपशय फैलाने वाले नरदत्त को क्या दण्ड दिया जाय?
चारायण- (काँपते हुए) जिस दण्ड की आप आज्ञा दें।
युवराज- तो चाण्डाल को बुलाकर परिजमसहित नरदत्त को मेरे सामने शूली पर लटका दो।
(नरदत्त काँपता है।) चारायण- (उच्च स्वर में) अरे हमारे सेवकों! चाण्डाल को शूली सहित बुलाओ।
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