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अष्टमोऽङ्कः
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करोति । इदं च नगरं तेन दुरात्मना विगतमानुषप्रचारं कृतम् । तवापि वनितानिमित्तं व्यसनं सम्भावयामि ।
भगवन्! स पुनः किमर्थमिदमनार्यं कर्म समाचरति ?
मकरन्दः
कापालिकः - महाभाग !
परस्य शर्मणः सत्यं प्रत्यूहो हरिणीदृशः ।
भवेऽपि तद् यदि क्वापि तदा ता एव हेतवः ।। १० ।।
-
अपि च
ताभ्यः सकर्णः को नाम कामिनीभ्यः पराङ्मुखः :? भूर्भुवः स्वर्विभूतीनां सौभाग्यं यत्प्रसादतः ।। ११ ।। पुरुषः- समादिशन्तु मे कृत्यं योगीन्द्रपादाः ।
कापालिक:- सप्तमं दिनमिदं विद्याधराधमाकर्षणविधिमनुतिष्ठतामस्माकम्, तदियं ते पत्नी पुरोवर्तिनीनामेकचक्राकामिनीनां मध्ये यामद्वय
कभी उस दुष्ट ने मानवविहीन कर दिया है। सम्भव है कि तुम्हारे ऊपर भी युवतियों (कौमुदी एवं सुमित्रा) के कारण कोई सङ्कट आ जाये ।
मकरन्द — भगवन्! परन्तु वह क्यों यह कुत्सित कर्म करता हैं ? कापालिक — महाभाग !
मृगनयनियाँ निश्चय ही अलौकिक आनन्द (मोक्ष) की प्रतिबन्धिका हैं, किन्तु यदि कहीं लौकिक आनन्दानुभूति होती है, तो उसका कारण भी वे ही हैं ।। १० ।।
और भी
जिन कामिनियों के प्रसाद से भूः भुवः (अन्तरिक्ष) और स्व:इन तीनों लोकों के ऐश्वर्य (के अनुभव ) का सौभाग्य प्राप्त होता है, उन कामिनियों के विषय में सुनकर भला कौन व्यक्ति उनसे विमुख हो सकता है । । ११ ।।
पुरुष – योगीन्द्र महोदय ! मुझे मेरा कार्य बतलायें ।
कापालिक— निकृष्ट विद्याधर को पकड़ने की विधि के हमारे अनुष्ठान का यह सातवाँ दिन है, इसलिए तुम्हारी पत्नी सामने स्थित एकचक्रा नगर की
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