Book Title: Kaumudimitranandrupakam
Author(s): Ramchandrasuri, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 206
________________ युवराज:सर्वोऽपि सार्थलोकः ? नरदत्त: चारायण: समृद्धवैभवम् । — नवमोऽङ्कः (नरदत्त उपायनभाजनमुपनीय प्रणमति । ) ( ससम्भ्रमम्) क्षेमं यात्रिकाः ! समायाताः स्थ? निरुपद्रवः युवराज: वेलन्धराभ्यर्णमशेषोऽपि सार्थः प्रविष्टः ? चारायण:देव! सार्थस्य कियानपि विष्कम्भोऽस्ति । (पुनर्नरदत्तं प्रति) विज्ञपय यथार्थं विष्कम्भस्वरूपं देवाय । --- १५३ देवस्य विक्रमबाहोर्युवराजस्य च लक्ष्मीपतेः प्रभावेन । देव! वेलन्धरमशेषमपि नरदत्तस्य यानपात्रयातायातैः नरदत्त:- - (सविनयम्) देव! सुवर्णद्वीपात् प्रतिनिवृत्तस्य ममैकः पटच्चरवृत्तिर्वणिक्पुत्रः सङ्घटितः । स च मया क्रयकौशलानुरञ्जितेन स्वसार्थे प्रधानः कृतः । स चेदानीं 'मदीयोऽयं सार्थः, न ते किमपि लभ्यमस्ति' इति व्याहरति । (नरदत्त उपहारपात्र समीप ले जाकर प्रणाम करता है ।) युवराज — (शीघ्रतापूर्वक) यात्रियो ! आप कुशलपूर्वक तो आये ? क्या सब के सब व्यापारी लोग सकुशल हैं ? - नरदत्त — महाराज विक्रमबाहु और युवराज लक्ष्मीपति के प्रभाव (कृपा) से सभी सकुशल हैं। चारायण- - देव! नरदत्त के जहाज के गमनागमन के कारण सम्पूर्ण वेलन्धर नगर ऐश्वर्यशाली हो गया है। Jain Education International युवराज- क्या सभी सार्थवाह वेलन्धर नगर में प्रविष्ट हो गये ? चारायण— देव! सार्थवाह के नगरप्रवेश के मार्ग में कुछ बाधा है। (पुनः नरदत्त से) युवराज को ठीक-ठीक बतलाओ कि क्या बाधा है? नरदत्त — (विनयपूर्वक) देव! सुवर्णद्वीप से वापस आते समय मुझे एक लुटेरा व्यापारीपुत्र मिला। उसके क्रय- कौशल से प्रसन्न होकर मैंने उसको अपने दल का नेता बना दिया और अब वह कहता है 'यह समस्त धन मेरा है, तुम्हें कुछ भी नहीं मिलेगा' । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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