Book Title: Kaumudimitranandrupakam
Author(s): Ramchandrasuri, 
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 207
________________ १५४ कौमुदीमित्रानन्दरूपकम् युवराजः- अहो! अराजन्वती वसुमती। (पुनर्विमृश्य) अमात्य ! नैकस्य संलापश्रवणेन निर्णयः कर्तुं शक्यते, अतो द्वितीयमपि पृच्छामि। चारायण:- कोऽत्र भोः अस्मत्परिजनेषु? (प्रविश्य) देवशर्मा- एषोऽस्मि। (चारायण: कणे—एवमेव।) (देवशर्मा निष्क्रान्तः।) (ततः प्रविशति मकरन्दो देवशर्मा च।) मकरन्द:- (सविषादमात्मगतम्) विच्छेदः पितृ-बान्धवैः, प्रवहणस्योदन्वति भ्रंशनं, प्राणेभ्योऽप्यधिकं प्रियेण विरहो मित्रेण पुण्यात्मना। कान्ताया नवसङ्गमेऽप्यपहृतिः, सर्वस्वनाशोऽधुना, नव्यं नव्यमुदेति कन्दलमहो! प्रातीपिके वेधसि।।४।। युवराज- अहो! पृथ्वी कितनी अराजक हो गयी है? (पुनः सोचकर) अमात्य! केवल एक व्यक्ति की बात सुनकर निर्णय नहीं किया जा सकता, अत: दूसरे से भी पूछता हूँ। चारायण– अरे! यहाँ हमारा कोई सेवक है? (प्रवेश कर) देवशर्मा- मैं हूँ। (चारायण कान में ऐसा ही करो) (देवशर्मा निकल जाता है।) (तत्पश्चात् मकरन्द और देवशर्मा प्रवेश करते हैं।) मकरन्द- (विषादपूर्वक मन में) पहले माता-पिता तथा बन्धुजनों से विच्छेद, समुद्र में जहाज का डूबना, पुनः प्राणों से भी प्रियतर धर्मात्मा मित्र से वियोग, नवमिलन में ही पत्नी का अपहरण और अब सर्वस्वनाश। अहो! भाग्य के प्रतिकूल होने पर नई-नई विपत्तियाँ उपस्थित हो रही हैं।।४।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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